Thursday 7 February 2013

श्रद्धा में नंगापन कबूल,कला में संस्कृति का संकट


श्रद्धा में नंगापन कबूल,कला में संस्कृति का संकट

7 जनवरी,2013 की शाम 7:30 से 08 बजे के बुलेटिन में फोकस टीवी ने दिल्ली के एक प्रदर्शनी में प्रदर्शित पेंटिंग-कला पर फोनों लिया. 

समाचार का विषय था- क्या पेंटिंग-कला के नाम पर महिलाओं को ‘नग्न’ दिखाया जाना उचित है ? यह महिलाओं के साथ खुलेआम मजाक नहीं है ? क्या कला-संस्कृति और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इसकी इज़ाज़त दी जा सकती है.? क्या हमारे समाज में इतना बदलाव आया है कि इस तरह के चित्रों को सहजता से स्वीकार किया जाय..? इन सवालों का हमने जो जवाब दिया और जो याद रख सका,यहाँ प्रस्तुत है,उसका सम्पादित ज़वाब...           

पहला
हम उस कला के पक्षधर हैं,जो समाज के दुःख,दर्द,पीड़ा,संघर्ष के अभिव्यक्ति को मंच प्रदान करे.
आम-आदमी का मशाल बने.कला,कला का वाहक बने.प्रगतिशील समाज और सोच का निर्माण करे.   
किसी भी कलाकार का दायित्व है कि वह रंगों-रेखाओं के माध्यम से कला को महिलाओं की इज्ज़त और आज़ादी के लिए आवाज़ बुलंद कर सके.कला को बाज़ार और व्यवसाय का हिस्सा न बनाये.      

दूसरा
आज जब किसी कला को नग्नता कहकर आलोचना की जाती है तब सोचना पड़ता है कि हमारा अतीत अधिक कला मर्मज्ञ था जहाँ हम कोणार्क से लगायत खजुराहों को देखते हैं या वर्तमान चैदहवीं सदी की मानसिकता लिए घूम रहा है.

तीसरा
इलाहाबाद के महाकुंभ में नागा बाबा आस्था और श्रद्धा के द्योतक हैं.फ़िल्में A और B ग्रेड की बन सकती हैं.इंटरनेट पर दुनिया भर की पोर्न फ़िल्में देखी या सर्च की जा सकती हैं.विज्ञापनों में महिलाओं को भोग की वस्तु बनाकर परोसा जा सकता है.
फिर कला-पेंटिंग में प्रदर्शित चित्र को घृणा,अपमान,अमर्यादा और नंगापन के तौर पर देखना कला के साथ न्याय परक नज़रिया है या अन्यायपूर्ण ...?
    
चार

जो मौजूदा कला को नग्नता के नाम पर विरोध कर रहे हैं,वे गरीबी,भूखमरी,बेरोजगारी,महिला उत्पीड़न,जातिवाद,क्षेत्रवाद,साम्प्रदायिकता,कठमुल्लावाद और भेद-भाव पर क्यों नहीं बोलते...?

करीब 80 करोड़ आबादी 20 रुपये पर जीवनयापन करने के लिए मजबूर है.पेंटिंग का विरोध करने वाले इस मुद्दे पर क्यों नहीं विरोध करते हैं...? दरअसल यह सब नज़र और नज़रिए का संकट है.कला को कला की नज़र से देखा जाना चाहिये.न कुंद मानसिकता से ग्रसित तौर पर जांचा-परखा जाना चाहिए.
            
पांच  
आज भी आदिवासी समाज में तन ढँकने के लिए महिलाओं के पास कपड़े नहीं हैं.इन मुददों पर विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं होते..? 
पेंटिंग में नग्नता का मुद्दा बनाकर विरोध करने वाले ऐसी कितनी महिलाओं को तन ढँकने के लिए साड़ी,ब्लाउज और पेटीकोट दिये हैं.


और अंत में
कला को समाज-संस्कृति और परंपरा की आड़ में न पनपने देना भी नकारात्मक सोच है.बाज़ार में मुनाफे और व्यापार के लिए कला को नग्नता का रूप देना भी कला के साथ दगाबाज़ी है.
एक कलाकार का दायित्व है कला के माध्यम से चेतनाशील और प्रगतिशील समाज गढ़ना और सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षशील जमात के आगे मशाल लेकर चलना.
हम भी इसी कला और कलाकार के समर्थक हैं.कला को बाज़ार के हवाले करने वालों के नहीं.
         



   
       

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