Friday 15 February 2013

बस्तियों की तरह उजड़ते हैं दिल यहाँ


दिल  
एक तरह का नगर है
जिसे कुछ लोग बसाते हैं
और
कुछ लोग इसे उजाड़ते हैं
यहाँ भी पतझड़ और बसंत का
आवागमन होता है
न सारा दिल एक जैसा होता है
और
न सारा नगर  
कुछ दिल यहाँ भी आँधियों से उजड़ जाते हैं
और
कुछ दिलों के षड्यंत्र से उजाड़े जाते हैं
उजड़े हुए दिलों में  
कुछ नयी बस्तियां भी बस्ती हैं
कुछ दिलों का काम ही है
बसे हुए दिलों को बस्तियों की तरह उजाड़ना
जैसे कभी-कभी उजाड़ती है सरकार  
झुग्गी-झोपड़ियों को  
हाई-वे के किनारे बसे गाँवों को
आम आदमी के भावों को
दिल
आखिर दिल ही तो है
जुड़ना और टूटना इसकी प्रकृति है
प्रकृति भी तो ऐसी ही है
उसके स्वरुप में भी तो एकरूपता का आभाव है
फिर
दिल,नगर और प्रकृति में अंतर कैसा ?
है न
विविधता और खूबियों का  
समानता और असमानता का
लगाव और अलगाव का
जुड़ाव और विलगाव का
मिलन और विछोह का
हरियाली और सुखा का  
कभी-कभी लगता है
हमारा दिल मरुस्थल बन गया है
मरुस्थल में भी तो नगर हैं
और
नगरों में मरुस्थल  
यह भी तो    
प्रकृति का ही एक रूप है
जैसे मरुस्थल जलता है
वैसे ही
दिल भी जलता है
गोयठे की आग की तरह नहीं
कोयले की आग की तरह भी नहीं
लकड़ी की आग की तरह भी नहीं
कभी जंगलों को जलते हुए देखा है
ठीक वैसे ही जलता है
अपना दिल
अबूझ पहेली की तरह   
हर वक़्त
हर मौसम में
आज भी जल रहा है
और
कल भी जलेगा
जैसे जल रहे हैं
नगर
और
जल रही है प्रकृति  
वैसे ही जल रहा है
अपना दिल
............................(अधूरी)
15/02/1203/04:00pm.

सुनो ! मेरा विद्रोह गान



............बीज..........

मैं
बीज हूँ
बंज़र जमीन का  
निकला हूँ
धरती को चीरकर
उठा हूँ
झंझावातों से जूझ कर
खड़ा हूँ तूफानों से भींड़कर
सोया हूँ काँटों के सेज पर
उबड़-खाबड़ पथ पर
चला हूँ अकेले तपकर
आधे पेट खाकर
फटा-पुराना पहिनकर
किया है हासिल लक्ष्य को
सांचे के बाहर डटकर
पौधे जैसा मेरा जीवन
बनकर बीज  
किया है
संघर्ष-सृजन …

14 /02/2013/1:58.am
   
-----------विद्रोह गान................ 
तुम हो
सत्ता-प्रतिष्ठान
कैसे करूँ तुम्हारा बखान
गाऊं कैसे
तुम्हारा महिमागान  
तुमने
हमारे अरमानों को है रौंदा
भावनाओं का किया है सौदा  
संवेदनाओं का किया है दमन
संभावनाओं को किया है दफ़न
सदियों से छला है
हमारे सरोकारों को
हमारे सृजनशीलता को किया है शहीद
तुम ही बताओ
गाऊं कैसे  
गान तुम्हारा
शोषण का गुणगान तुम्हारा
क्रूरता का विजय गान तुम्हारा
अब दिल करता है
गाऊं बगावत की गीत
मुक्ति का राष्ट्रगान
खबरदार जो बढ़े तुम्हारे कदम
हमारी तरफ
अपने कानों को कह दो हो जाएँ सावधान
सुनने के लिए मेरा विद्रोह गान
यह कदम नहीं रुकेंगे
एक इंच नहीं झुकेंगे
अब लेकर ही रहेंगे
अपना हिस्सा
खत्म होगा
तुम्हारे  सदियों का किस्सा
मांगोगे तुम जीवन का भिक्षा
  
................तपन.............

सर्दी हो या बारिश  
दमन हो या तपन
कदम तुम्हारे रुके नहीं
इरादे तुम्हारे झुके नहीं
तपती दिन-दुपहरिया में
नंगे पैर का चलना
छन-छन तलुवे का जलना
गोंद में हमारा फुदकना
खुशी से तुम्हारा चहकना
दर्द हमने देखा नहीं
जर्द तुमसा सहा नहीं
फर्ज तुमसा निभाया नहीं
हमेशा करता हूँ अर्ज
आंसुओं बाहर निकलना नहीं
कर्ज तुम्हारा मिटा नहीं
ममतामई मर्म सही
अपना यही कर्म गहि
माँ की ममता
प्यार की समता

DRY/14/02/2013/12:30 

प्रेमियाये,प्रेमियों के नाम !


जब
मुहब्बत तिजारत बन जाये
लेकर फुल साल में एक दिन
चुपके से पार्कों-रेस्तरां में मिला जाये
कसमे-वादे,प्यार-वफ़ा
का दावा किया जाये
जब बात न बने
हो जाएँ असफल
चलते राह तेज़ाब क्यों फेका जाये
ताक-झांक तो पूरे साल करते हैं
मौका मिलते ही बलात्कार क्यों किया जाये
ग़र
प्रेम हो दिली
तो फिर दिखावा क्यों किया जाये
इसे अंतस मन में ही क्यों न रखा जाये
बाज़ार के हवाले क्यों किया जाये
प्रेम को
भोग
की वस्तु क्यों बनाया जाये
क्यों न
स्त्री को
‘यूज एंड थ्रो’ की जगह
प्रेम की पवित्रता के सूत्र में बंधा जाये….
DRY/14/02/2013/11:27/am.

भोजपुरी बनी ‘भोग-पुरी’ !


रमेश यादव.12 फरवरी,2013.नई दिल्ली.  
 सत्ता प्रतिष्ठान और उसके इर्द-गिर्द मंडराने वालों के लिए भोजपुरी इन दिनों भोग-पुरी‘ साबित हो रही है,बावजूद इसके भोजपुरी को ओढ़ने-बिछाने वाले वगैर दिखावा किये इसे अपने रगों में जी रहे हैं.
किसी भी भाषा को आम अवाम ज़िंदा रखती है और उसका निरंतर सृजन भी करती है,सरकारें नहीं.सरकारें तो सिर्फ बोली/भाषा की औजार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं.वहां तक अपनी घुसपैठ बनाने के लिए.
 बोली-भाषा को सर्वाधिक खतरा आम आदमी से नहीं बल्कि,उन्हें ज़िंदा रखने और सृजन के लिए बनी आकादामियों और उनके संरक्षकों से है.
 आमतौर से देखा गया है जो लोग सत्ता प्रतिष्ठान के इर्द-गिर्द गणेश परिक्रमा करते हैं,वहीँ आकादामियों के खेवनहार बन जाते हैं.
 कई बार तो सत्ता के साथ सरोकार रखने वाले ही बोलियों-भाषाओँ के भी सरोकारी बन जाते हैं.अंग्रेजी बोलने वाले हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और हिन्दी बोलने वाले मैथिल और भोजपुरी की.अन्य बोलियों-भाषाओँ के साथ भी यही हाल होगा.
 यानी भोजपुरी के अंडे को अंग्रेजी को पालने की जिम्मेवारी दी गई है.यह ठीक वैसे ही है जैसे कोयल के अंडे को कौवा पाल रहा हो…
ऐसा नहीं है कि भोजपुरी बोलने वालों का अकाल है.यह संकट जिम्मेवारी के स्तर पर है.    
 आमतौर पर देखा गया है कि बोलियों-भाषाओँ की जिंदगी सेमिनारों/ कार्यशालाओं/ संगोष्ठियों/ परिचर्चाओं और खानापूर्तियों पर निर्भर होती है.बजट सत्र के पूर्व अकादमियों में अधिक गहमागहमी दिखती है.यह भी रस्म अदायगी तक सीमित है.
अकादमियों को अपने इस चरित्र से बाहर निकलने की जरुरत है.यह प्रयास कोई सरकार नहीं करेगी.जब तक इस तरह के संस्थाओं की कमान सरकारों के पास रहेगा तब तक पुरस्कारों,पदों और लाभ का बन्दर बाँट होता रहेगा.
इसको स्वतंत्र-संस्था के रूप में संचालित करने की जरुरत है.जब तक सरकारों की साया अकादमियों पर मंडराती रहेगी.तब तक सरकार के सेवक इसका भोग करते रहेंगे.
 भाषाओँ के भोगवाद के ख़िलाफ़ अभियान चलाने और जनता के सरोकार से इसे जोड़ने की जरुरत है.

Thursday 7 February 2013

श्रद्धा में नंगापन कबूल,कला में संस्कृति का संकट


श्रद्धा में नंगापन कबूल,कला में संस्कृति का संकट

7 जनवरी,2013 की शाम 7:30 से 08 बजे के बुलेटिन में फोकस टीवी ने दिल्ली के एक प्रदर्शनी में प्रदर्शित पेंटिंग-कला पर फोनों लिया. 

समाचार का विषय था- क्या पेंटिंग-कला के नाम पर महिलाओं को ‘नग्न’ दिखाया जाना उचित है ? यह महिलाओं के साथ खुलेआम मजाक नहीं है ? क्या कला-संस्कृति और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इसकी इज़ाज़त दी जा सकती है.? क्या हमारे समाज में इतना बदलाव आया है कि इस तरह के चित्रों को सहजता से स्वीकार किया जाय..? इन सवालों का हमने जो जवाब दिया और जो याद रख सका,यहाँ प्रस्तुत है,उसका सम्पादित ज़वाब...           

पहला
हम उस कला के पक्षधर हैं,जो समाज के दुःख,दर्द,पीड़ा,संघर्ष के अभिव्यक्ति को मंच प्रदान करे.
आम-आदमी का मशाल बने.कला,कला का वाहक बने.प्रगतिशील समाज और सोच का निर्माण करे.   
किसी भी कलाकार का दायित्व है कि वह रंगों-रेखाओं के माध्यम से कला को महिलाओं की इज्ज़त और आज़ादी के लिए आवाज़ बुलंद कर सके.कला को बाज़ार और व्यवसाय का हिस्सा न बनाये.      

दूसरा
आज जब किसी कला को नग्नता कहकर आलोचना की जाती है तब सोचना पड़ता है कि हमारा अतीत अधिक कला मर्मज्ञ था जहाँ हम कोणार्क से लगायत खजुराहों को देखते हैं या वर्तमान चैदहवीं सदी की मानसिकता लिए घूम रहा है.

तीसरा
इलाहाबाद के महाकुंभ में नागा बाबा आस्था और श्रद्धा के द्योतक हैं.फ़िल्में A और B ग्रेड की बन सकती हैं.इंटरनेट पर दुनिया भर की पोर्न फ़िल्में देखी या सर्च की जा सकती हैं.विज्ञापनों में महिलाओं को भोग की वस्तु बनाकर परोसा जा सकता है.
फिर कला-पेंटिंग में प्रदर्शित चित्र को घृणा,अपमान,अमर्यादा और नंगापन के तौर पर देखना कला के साथ न्याय परक नज़रिया है या अन्यायपूर्ण ...?
    
चार

जो मौजूदा कला को नग्नता के नाम पर विरोध कर रहे हैं,वे गरीबी,भूखमरी,बेरोजगारी,महिला उत्पीड़न,जातिवाद,क्षेत्रवाद,साम्प्रदायिकता,कठमुल्लावाद और भेद-भाव पर क्यों नहीं बोलते...?

करीब 80 करोड़ आबादी 20 रुपये पर जीवनयापन करने के लिए मजबूर है.पेंटिंग का विरोध करने वाले इस मुद्दे पर क्यों नहीं विरोध करते हैं...? दरअसल यह सब नज़र और नज़रिए का संकट है.कला को कला की नज़र से देखा जाना चाहिये.न कुंद मानसिकता से ग्रसित तौर पर जांचा-परखा जाना चाहिए.
            
पांच  
आज भी आदिवासी समाज में तन ढँकने के लिए महिलाओं के पास कपड़े नहीं हैं.इन मुददों पर विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं होते..? 
पेंटिंग में नग्नता का मुद्दा बनाकर विरोध करने वाले ऐसी कितनी महिलाओं को तन ढँकने के लिए साड़ी,ब्लाउज और पेटीकोट दिये हैं.


और अंत में
कला को समाज-संस्कृति और परंपरा की आड़ में न पनपने देना भी नकारात्मक सोच है.बाज़ार में मुनाफे और व्यापार के लिए कला को नग्नता का रूप देना भी कला के साथ दगाबाज़ी है.
एक कलाकार का दायित्व है कला के माध्यम से चेतनाशील और प्रगतिशील समाज गढ़ना और सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षशील जमात के आगे मशाल लेकर चलना.
हम भी इसी कला और कलाकार के समर्थक हैं.कला को बाज़ार के हवाले करने वालों के नहीं.
         



   
       

Saturday 2 February 2013

मलाला को नोबल,कठमुल्लावाद पर तमाचा


मलाला यूसुफजई के मुद्दे पर
आज शाम 7 बजे फ़ोकस टी.वी. को दिए गए फ़ोनो का संक्षिप्त अंश यहाँ प्रस्तुत है.
पहला  

भारत और पाकिस्तान का सामाजिक ढांचा मर्दवादी नींव पर टीका है.न केवल इन दोनों मुल्कों में बल्कि,दुनिया के पैमाने पर पुरुष,महिलाओं को अपना उपनिवेश और उनके बदन को अपना साम्राज्य समझते हैं.
दूसरा

कट्टरवादी और कठमुल्लावादी शक्तियाँ महिलाओं को जाहिल,गंवार और अपना गुलाम बनाकर रखना चाहती हैं.
तीसरा

पाकिस्तान में मलाला ने कठमुल्लों के जड़तावादी सत्ता को चुनौती देकर शिक्षा के लिए परिवर्तनकारी पहल की.
चौथा   

यदि मलाला को शांति का नोबल पुरस्कार मिलेगा तो दुनिया में संघर्षशील महिलाओं में सकारात्मक संदेश पहुंचेगा.उनका आत्मबल और हौसला बढ़ेगा.वे और बहादुरी के साथ संघर्ष करेंगी.अन्याय के ख़िलाफ़ विरोध करने के लिए वे और अधिक चुनौती कबूल करेंगी और प्रेरित होगीं.
पांचवां  

पाकिस्तान की माएं मलाला जैसी बेटी ज़नने के लिए ख़्वाब देखेंगी और अपने बेटे-बेटियों को मलाला बनने के लिए प्रेरित होंगी.वहां पर नई पीढ़ी शिक्षा हासिल करने के लिए और आगे बढेंगी.
छः

मलाला को नोबल का शांति पुरस्कार एक तरह से महिलाओं की इज्ज़त,आज़ादी और बराबरी के दुश्मन कठमुल्लावादियों के ताबूत में कील का काम करेगा.


अंतिम बात जो यहाँ कह रहे हैं- हमारी तरफ से नार्वे की संसद और सत्ताधारी पार्टी को नोबल पुरस्कार देने के लिए उठाये गए अभूतपूर्व निर्णय के लिए बधाई.


और अंत में प्रस्तुत है एक कविता जो 9 अक्तूबर 2012 को मलाला के लिए लिखा था-           


Tuesday, 9 October 2012

मलाला युसुफ़जई ! 
घूटने मत टेकना उनकी बंदूकों के आगे 
डटकर करना मुकाबला  
कठमुल्लों/कट्टरपंथी तालिबानियों का
उनकी मिसाइलें भी खामोश हो जाएँगी
कम पड़ जाएँगी गोलियाँ  
तुम्हारे फौलादी इरादों के आगे
झुकना ही होगा
उन्हें एक दिन
तुम्हारे मिशन के सामने
कामयाब होगा तुम्हारा सपना    
जारी रखना अपने हौसलों की उड़ान 
तुम्हारे पाक इरादे
दर्ज़ होंगे
दुनिया के इतिहास में
जनेंगीं 'माएं'
हजारों 'मलाला'
फक्र करेंगी तुम्हारे बहादुरी पर
हार मत मानना 
तुम्हारे पीछे कतार लगाये खड़ी हैं 
उम्मीद भरी करोड़ो नज़रें   
अपनी बेहतरी सपना लिए 
तुम बनना 
उनकी मुक्ति 
का अगुआ ...


रमेश यादव /09/10/2012
नोट : पाकिस्तानी की 14 वर्षीय किशोरी मलाला युसुफजई को देश के उत्तर-पश्चिम में स्वात घाटी में तालिबानियों प्राणघातक हमला किया है.वो घायल है.
मलाला पहली बार साल वर्ष 2009 में सुर्खियों आईं जब 11 साल की उम्र में उन्होंने तालेबान के साये में ज़िंदगी के बारे में बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखना शुरु किया. इसके लिए उन्हें वर्ष 2011 में बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था.


दिल उपनिवेश और बदन साम्राज्य


दिल उपनिवेश और बदन साम्राज्य 

1
हमारा
दिल
तुम्हारा उपनिवेश है
और
हमारा बदन
तुम्हारा साम्राज्य
और
तुम
एक साम्राज्यवादी
स्थापित करना चाहते हो साम्राज्य
हमारी आजादी  
अधिकारों
भावनाओं   
संवेदनाओं    
संभावनाओं   
ख़्वाबों    
उड़ानों  
मन   
सोच
कोख   
चिंतन और चाहत पर   
कदम-दर-कदम करते हो आहात
आखिरकार
हमारा बदन भी एक तरह का
भू–भाग ही तो है
जिस पर
तुम स्थापित करना चाहते हो
अपना साम्राज्य...  

2
हमारा बदन
तुम्हारे लड़ाई का मैदान है
और
तुम
एक लड़ाके
तुम
हमारे बदन से  
ठीक वैसे ही
लड़ते आ रहे हो
जैसे लड़ता है
अमेरिका
अफगानिस्तान,ईराक और इरान से...   

3 
हमारा बदन
तुम्हारे लिए
पैर है
कभी धान का
कभी गेहूँ का
जिसकी
दौरी करते हैं
बैल अपने खुर से
मैं भी तो तुम्हारे लिए
पैर ही हूँ
और
तुम
दंवरी करता हुआ बैल.

4
हमारा
बदन
तुम्हारे लिए
कभी उपजाऊ खेत है  
कभी खलिहान
जब भी
तुम्हें
अहसास होता है
हमारे
बंजर होने का
बदल देते हो
हमें
ठीक वैसे ही
जैसे बदलते हो कपड़े
बदन के अपने
तुम्हें पसंद है
लहलहाती फसल
और उपजाऊ जगह.  

5
हमारी कोख
है
तुम्हारा   
नौमासा
फसल
उगाने की जमीन
जहाँ पैदा होता है
तुम्हारे
वंशवाद का बीज  
बदन हमारा
कब्जा तुम्हारा.

6
कभी-कभी
लगता है
हमारा बदन
एक रोड है
और तुम
उस पर चलने वाला लारी
रोड को कभी रोते हुए देखा है
जिसके ऊपर से गुजर जाते हैं
न जाने कितने बोझ.  

7
तुम्हारे लिए
हमारा बदन
कभी फुटबाल है  
कभी खेल का मैदान
जहाँ
जीत सिर्फ
तुम्हारी होती है  
क्यों ?
यह उजाले की तरह साफ है  
प्लेयर भी तुम
रेफरी भी तुम.


8

हमारा
बदन गन्ना है
ताजिंदगी पेरी जाती हूँ
तुम्हारे
कोल्हू में गन्ने की तरह
तुम्हें
कितना रस मिलता है
हमारे बदन से
हमारे जीवन से
इसी रस से बनाते हो
कभी गुड़
कभी खांड़
कभी चीनी.  

9
हमारी
आखें हैं
दर्द और पीड़ा से निकली
एक नदी  
कभी जेठ की तरह सूखती   
कभी सावन-भादों सी उफनती     
और
तुम्हें
नज़र आती है झील.  

10
हमारा
बदन है
श्रम से उपजा  
संघर्षों में तपा
समझौतों से दबा
बोझ से लदा
दर्द से भरा
घाओं से हरा
गुलामी में जकड़ा 
जंजीरों में बंधा

अब मैं
इस बदन को आज़ाद करना चाहती हूँ
स्वतंत्रता की नई जमीन तोड़ना चाहती हूँ
खुले आसमान में उड़ान भरना चाहती हूँ
तुम
उठाओ
कागज-कलम
-लिखो गाथा
स्त्री मुक्ति का.
.................---------------............(भविष्य में विस्तार और संशोधन संभव) 
DRY/02/02/2013/12.00