आज की तीन कविताएँ
1
देखना हो गर
हमें
अपनी नज़रों से देखो
पराये की नज़र से देखोगे
धोखा ही खाओगे
2
कब
से कराह रहा है
प्यार का ककहरा
अपनी ही कलाकारी पर
अब
मैं सीख रहा हूँ
अपनी ही कबूतरों से
नया ककहरा
दगाबाज़ी का नहीं
न ही सौदेबाज़ी का
बाज़ारवाद का भी नहीं
उनसे सीख रहा हूँ
मोहब्बत और सरोकार
नये तरीके से प्यार करना भी
उस तरह से नहीं
जैसे हम इंसान करते नहीं हैं
बल्कि
उस तरह से जैसे वे करते हैं
मैं उनसे से
सीख रहा हूँ
इंसानियत का ककहरा
3
हमने
उड़ना सीख लिया है
मुक्त गगन के छाँव में
आज़ादी की ठांव में
स्वाभिमान के भाव में
आसान नहीं है अब
कब्ज़ा करना मुझ पर
एक चुटकी
सिंदूर की ख़्वाब में
बाँध कर मंगल-सूत्र का पट्टा
परम्पराओं की आड़ में
रीति-रिवाज़ों की छाँव में
मर्दवाद के काँव-काँव में
अब तुम
नहीं तोड़ सकते
हमारे पंख
रिश्तों की आड़ में
किश्तों के करार में
लिंग-भेद के भाव में
जड़ता के जंजाल में
अब नहीं है फंसना
तुम्हारे महाजाल में
........................................ DRY/29/01/2013
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