Thursday 31 January 2013

आज़ाद नैहर या गुलाम ससुराल ?


एक लड़की
या
स्त्री 
नैहर में आज़ाद रहती है
या 
ससुराल जाते ही गुलाम बन जाती है
या 
नैहर से गुलाम आती है और
ससुराल पहुंचते ही
आज़ाद हो जाती है
या दोनों जगहों पर 
गुलामी और आज़ादी का
पलड़ा बराबर रहता है...
क्या यह मामला गाय नुमा
लड़की/स्त्री पर ही लागू होता है 
या समाज के सभी तरह की स्त्रियों पर
यह एक मनोवैज्ञानिक शोध है य धारणा  
यह पुरुषवादी ढांचे का एतिहासिक हकीकत है
या सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट का परिणाम
कुछ खास वर्ग की स्त्रियों का मामला है
या सम्पूर्ण समाज का आईना    
यह सिर्फ भारत का मामला है या एशिया का
यूरोप का या अमेरिका का
समाजवादी देशों का
या साम्यवादी देशों का  
एक मुल्क का या सभी का
अविकसित का या विकासशील का
या फिर विकसित राष्ट्रों का....(विस्तार और संशोधन संभव)


यह लिख ही रहा था कि अचानक कड़कती हुई आकाशवाणी हुई.लड़की/स्त्री नैहर में माँ-बाप और भाई के इशारे पर नाचती है और ससुराल में उसे सास नामक जीव मिलती है,जिसके सामने होठ पर टांका लगा का ताजिंदगी गुजारनी पड़ती है.एक-दो विसंगतियाँ हों तब न बतायी जाये...

Wednesday 30 January 2013

आज़ाद नैहर,गुलाम ससुराल ?


एक लड़की
या
स्त्री 
नैहर में आज़ाद रहती है
या 
ससुराल जाते ही गुलाम बन जाती है
या 
नैहर से गुलाम आती है और
ससुराल पहुंचते ही
आज़ाद हो जाती है
या दोनों जगहों पर 
गुलामी और आज़ादी का
पलड़ा बराबर रहता है...
क्या यह मामला गाय नुमा
लड़की/स्त्री पर ही लागू होता है 
या समाज के सभी तरह की स्त्रियों पर
यह एक मनोवैज्ञानिक शोध है य धारणा  
यह पुरुषवादी ढांचे का एतिहासिक हकीकत है
या सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट का परिणाम
कुछ खास वर्ग की स्त्रियों का मामला है
या सम्पूर्ण समाज का आईना    
यह सिर्फ भारत का मामला है या एशिया का
यूरोप का या अमेरिका का
समाजवादी देशों का
या साम्यवादी देशों का  
एक मुल्क का या सभी का
अविकसित का या विकासशील का
या फिर विकसित राष्ट्रों का....(विस्तार और संशोधन संभव)


यह लिख ही रहा था कि अचानक कड़कती हुई आकाशवाणी हुई.लड़की/स्त्री नैहर में माँ-बाप और भाई के इशारे पर नाचती है और ससुराल में उसे सास नामक जीव मिलती है,जिसके सामने होठ पर टांका लगा का ताजिंदगी गुजारनी पड़ती है.एक-दो विसंगतियाँ हों तब न बतायी जाये...

  DRY/31/01/2013/08:59am.

Tuesday 29 January 2013

यहाँ आदमियों के शिकार का आदमी ही शिकारी है


यहाँ आदमियों की बस्ती में हर आदमी परेशां है

हिन्दुओं की बस्ती में
मुसलमान परेशां हैं
मुसलामनों की बस्ती में
हिन्दू परेशां हैं
शियाओं की बस्ती में
सुन्नी परेशां हैं
सुन्नियों की बस्ती में
शिया परेशां हैं
हिन्दुओं की बस्ती में खुद
हिन्दू परेशां हैं
अगड़ों की बस्ती में
पिछड़े परेशां हैं
पिछड़ों की बस्ती में
दलित परेशान हैं
दलितों की बस्ती में
आदिवासी परेशां हैं
आदिवासियों की बस्ती में
जानवर परेशां हैं
मजबूत अगड़ों की बस्ती में
कमजोर अगड़े परेशां हैं
पिछड़ों की बस्ती में
पिछड़े भी परेशां हैं
दलितों की बस्ती में
दलित भी परेशां हैं
आदिवासियों की बस्ती में
आदिवासी भी परेशां हैं
मर्दों की बस्ती में
महिलाएं परेशां हैं
महिलाओं की बस्ती में
आदमी परेशां हैं
आदमियों की बस्ती में
जानवर परेशां है
जानवरों की बस्ती में
आदमी परेशां हैं
कौन
किसके बस्ती में
नहीं परेशां है
यहाँ आदमी ही शिकारी है   
और आदमी ही शिकार है
आदमियों की बस्ती में
हर आदमी परेशां है (विस्तार संभव)
DRY/29/01/2013/09:34/

हमने उड़ना सीख लिया है मुक्त गगन की छाँव में


आज की तीन कविताएँ  


1  
देखना हो गर
हमें
अपनी नज़रों से देखो
पराये की नज़र से देखोगे
धोखा ही खाओगे

2
कब
से कराह रहा है
प्यार का ककहरा
अपनी ही कलाकारी पर
अब
मैं सीख रहा हूँ
अपनी ही कबूतरों से  
नया ककहरा
दगाबाज़ी का नहीं
न ही सौदेबाज़ी का  
बाज़ारवाद का भी नहीं
उनसे सीख रहा हूँ
मोहब्बत और सरोकार
नये तरीके से प्यार करना भी  
उस तरह से नहीं
जैसे हम इंसान करते नहीं हैं
बल्कि
उस तरह से जैसे वे करते हैं
मैं उनसे से
सीख रहा हूँ
इंसानियत का ककहरा

 3
हमने
उड़ना सीख लिया है
मुक्त गगन के छाँव में     
आज़ादी की ठांव में
स्वाभिमान के भाव में
आसान नहीं है अब
कब्ज़ा करना मुझ पर
एक चुटकी
सिंदूर की ख़्वाब में
बाँध कर मंगल-सूत्र का पट्टा   
परम्पराओं की आड़ में
रीति-रिवाज़ों की छाँव में
मर्दवाद के काँव-काँव में
अब तुम
नहीं तोड़ सकते
हमारे पंख  
रिश्तों की आड़ में   
किश्तों के करार में
लिंग-भेद के भाव में
जड़ता के जंजाल में
अब नहीं है फंसना
तुम्हारे महाजाल में  
........................................ DRY/29/01/2013


Monday 28 January 2013

प्रकाशक चील,लेखक बगुला और पाठक मछली




भाग एक 

रमेश यादव
आधुनकि सूचना तकनीक आदमी को दुनिया से और दुनिया को आदमी से जिस गति से जोड़ा है.उसी रफ़्तार से उसे समाज से अलग-थलग भी किया है. पहले की अपेक्षा संवाद सुलभ हुआ है.
वैश्विक गतिशील बढ़ी है.अवसर भी बढ़ें हैं.बावजूद इसके व्यक्ति जीवन के स्तर पर एकाकी,तकनीकी और व्यक्तिवाद का शिकार होता जा रहा है.इसका प्रभाव पढ़ाई-लिखाई पर भी पड़ा है.  

हम भी इसके शिकार हुए हैं.जब हममें पढ़ने की ललक थी.तब हमारे पास किताबें नहीं थीं और खरीदने के लिए पैसे भी.आज किताबें हैं.खरीदने की क्षमता (डालर/पाउंड को छोड़) भी है.
घर में लाइब्रेरी भी है.उनमें किताबें भी हैं.लेकिन पढ़ने की ललक निरंतर मरती जा रही है. इसके पीछे कोई एक नहीं कारण नहीं है,अनेकों कारण हैं.पहले लोगों के पास वक्त ही वक्त था.अब उसी वक्त में टीवी / न्यूज चैनल्स
इंटरनेट / फेसबुक / ब्लॉग /ट्विटर / न्यूज पोर्टल आदि ने सेंधमारी की है.तब हमारे जीवन में ये सभी साधन नहीं थे.
आज जीवन की भाग-दौड़,बोझिल प्रोफेशन कार्यशैली सामाजिक,आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक समस्याएं दिमाग को बंजर बनाने में हम भूमिका अदा की हैं.लेखक और लेखन के स्तर पर भी संकट आया है.
अच्छी किताबों का आभाव भी खल रहा है.अब कोई ऐसी किताब नहीं मिलती,जिसे भीख मांग कर पढ़ने या खरीदने के लिए मचला जाए.
 किताबें वहीँ बाज़ार में आ रही हैं.जिन लेखकों की पहुँच प्रकाशक तक है याजिनके तक,प्रकाशक खुद पहुँच रहे हैं.लेखक और प्रकाशक के बीच एक खास किस्म का गठजोड़ चल रहा है.
यह कुबवादी और मठवादी गिरोह है,जो अपनों और अपने खेमे कोहर तरह से लांच करने के तिकड़म / षड्यंत्र में शामिल / सक्रिय है.    
आज बाज़ार में उन किताबों की बाढ़ सी आयी हुई है,जो पाठक के दिमाग मेंभूंसा-गोबर भर रही हैं.यहीं किताबें कमीशन खोरी और पैरवी के सहारे
सरकारी-गैर सरकारी पुस्तकालयों में धड़ल्ले से मंगाई जा रही हैं या भरी पड़ी हैं.कीमतें,मत पूछिए...कुछ खास लेखक,कुछ खास प्रकाशकों के लिए दुधारू गाय बने हुए हैं.
ये ग्वाला की तरह उनके थन के नीचे बाल्टी लगाये एक बूंद अमृत ज्ञान’ टपकने की टकटकी लगाये रहते हैं.
 जो किताबें वास्तव में पठनीय हैं या जो असरदार लेखक हैं,उनकी किताबें खरीदने के लिए भटकना पड़ता है.
 भारत में कोई भी पुस्तक आमतौर पर बेस्ट सेलरनहीं होती है.बेस्ट सेलरघोषित करने में प्रकाशक को घाटा है.कारण उसे लेखक को रायल्टी (रॉइअल्टी) देनी पड़ेगी.   
बावजूद इसके कई ऐसे छोटे-छोटे प्रकाशक हैं जो सस्ते दर पर साहित्य उपलब्ध करा रहे हैं.कुछ प्रकाशक लोकप्रिय विदेशी साहित्य का बेहतरीन हिन्दी अनुवाद भी कर रहे हैं.         

लेखक,पुस्तक,प्रकाशक और पाठक इन सब में दर्द,दया और दरबार की संस्कृति भी विकसित हुई है.लिखने,छापने और पढ़ने की संस्कृति में भी चोरी और सेंधमारी की संस्कृति पनप रही है.जब तकनीकी रूप से पिछड़े चोर सेंध विधि की चोरी के माहिर थे.
 रात में सेंध लगाकर चोरी कर ले जातेलोगों को सुबह पता चलता.तब चिलपों-चिलपों शुरू होतापता नहीं उस ज़माने के लोग कितना सुतक्कड़ थे याफिर चोरशातिर थे.आज तो प्रकाशक दिन में चोरी करता है और जगे हुए लेखक को पता तक नहीं चलता.

आज बौद्धिक चोरी,मुनाफे और शोषण की संस्कृति के साथ ही पढ़ने के अलहदीपन/आलसीपन की संस्कृति पर भी चर्चा की जरुरत है.

पहले किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे,तब पुस्तकें मांग कर/झटक कर पढ़ते थे.चोखा-भात खाकर पैसा बचाते थे.फिर उससे मन पसंद उपन्यास/कहानी/कविता/समकालीन विषयों पर लिखी पुस्तकों को खरीदते थे. इस अलहदीपन की संस्कृति का हम भी हिस्सा हैं..  

एक समय था जब पढ़ने बैठते थे तो भूख पेट में आन्दोलन करके शांत हो जाता था.खाना तभी खाते थे.जब पुस्तक की भूख ख़त्म होती या कम होती.कई बार किताबों के बारे में पता चलता.लंका यूनिवर्सल या बीएचयू विश्वनाथ मंदिर के पास प्रोग्रेसिव बुक सेंटर’ पर घूमते हुए पहुँच जाते.एक किताब देखते वे,लोग चार और किताबें पकड़ा देते.
बोलते ये पढ़िए ! 
अब तक का सबसे बेहतरीन उपन्यास है. मैं कहता ठीक है,इसे अगली बार ले जाऊँगा.कार्ल मार्क्स, सिमोन, स्टीफन स्वाइंग, इज़डोरा डंकन....की आत्मकथाएं.कई बार सिर्फ देखकर रख देते,कारण पैसे नहीं होते.पसंदीदा किताबें अधिक होतीं और साधन कम.
हमें याद है.2001से लगायत 2004 के रिसर्च के वक्त थीसिस पर काम करते,केंद्रीय लाइब्रेरी में घूस जाते,रिसर्च की पुस्तक तक पहुंचते,उससे पहले कोई न कोई उपन्यास मिल जाता.उठा लाते.

झा जी चुपके से आते,पीछे से पूछते क्या पढ़ रहे हो गुरु', किताब देखकर छीन ले जाते बोलते  'पहले थीसिस लिखो,फिर उपन्यास पढ़ना.विद्वान का .....पी-एच.डी. अवार्ड होने के बाद बनना ' 
 आज पैसा है.घर में वे सभी किताबें हैं,जिन्हें पढ़ने के लिए बेकरार था या अकेले की साथी थीं.अब पुस्तकों के लिए समय नहीं मिलता.मिलता भी है तो पढ़ने में दिल नहीं लगता.मतलबयह की तकनीक/संसाधनों की उपलब्धता से बेशक जीवन सुलभ बना है,लेकिन पढने की संस्कृति का नाश का भी हुआ है...

यह कटिंग-पेस्टिंग का ज़माना है. आधुनिक तकनीक ने पढ़ने-लिखने, सुनने, गुनने-धुनने के वक्त को अपना शिकार बनाया है.
आज समय और मन को शिकार होने से बचाने की चुनौती है.यह चुनौती ही पुस्तक और पढ़ने की संस्कृति को बचा पायेगी.

नोट:  26 जनवरी,२०१३ को पुस्तक,लेखक,प्रकाशक,पाठक औरघरेलू पुस्तकालय की संस्कृति पर परिचर्चा के लिए तैयार लेख का पहला भाग यहाँ प्रस्तुत है.          


Friday 25 January 2013



  1. कितने दिनों के बाद 
     
    कितने दिनों के बाद
    धूप खिली है आज

    कितने दिनों के बाद
    तुम सब को धूप दिखाया आज

    कितने दिनों के बाद
    कराही में नहाये आज

    कितने दिनों के बाद
    पंख फड़फड़ाये आज

    कितने दिनों के बाद
    फुर्सत के पल निकाले आज

    कितने दिनों के बाद
    पीठ सहलाये आज

    कितने दिनों के बाद
    हमारे आसपास मंडराए आज

    कितने दिनों के बाद
    कमरे का मुयायना किये आज

    कितने दिनों के बाद
    यहाँ-वहां उड़ कर तंग किये आज

    बहुत दिनों के बाद
    गंदगी साफ करवाए आज

    कितने दिनों के बाद
    गुस्सा दिलाये आज

    कितने दिनों के बाद
    दिल बाग-बाग हुआ आज


    DRY/25/01/2013/11.09.am
     
    Photo: कितने दिनों के बाद 
धूप खिला है आज 

कितने दिनों के बाद 
तुम सब को धूप दिखाया आज 

कितने दिनों के बाद 
कराही में नहाये आज 

कितने दिनों के बाद 
पंख फड़फड़ाये आज 

कितने दिनों के बाद 
फुर्सत के पल निकाले आज 

कितने दिनों के बाद 
पीठ सहलाये आज 

कितने दिनों के बाद 
हमारे आसपास मंडराए आज 

कितने दिनों के बाद 
कमरे का मुयायना किये आज 

कितने दिनों के बाद 
यहाँ-वहां उड़ कर तंग किये आज  

बहुत दिनों के बाद 
गंदगी साफ करवाए आज 

कितने दिनों के बाद 
गुस्सा दिलाये आज 

कितने दिनों के बाद 
दिल बाग-बाग हुआ आज 
  

DRY/25/01/2013/11.09.am
    Photo: कितने दिनों के बाद 
धूप खिला है आज 

कितने दिनों के बाद 
तुम सब को धूप दिखाया आज 

कितने दिनों के बाद 
कराही में नहाये आज 

कितने दिनों के बाद 
पंख फड़फड़ाये आज 

कितने दिनों के बाद 
फुर्सत के पल निकाले आज 

कितने दिनों के बाद 
पीठ सहलाये आज 

कितने दिनों के बाद 
हमारे आसपास मंडराए आज 

कितने दिनों के बाद 
कमरे का मुयायना किये आज 

कितने दिनों के बाद 
यहाँ-वहां उड़ कर तंग किये आज  

बहुत दिनों के बाद 
गंदगी साफ करवाए आज 

कितने दिनों के बाद 
गुस्सा दिलाये आज 

कितने दिनों के बाद 
दिल बाग-बाग हुआ आज 
  

DRY/25/01/2013/11.09.am
    Photo: कितने दिनों के बाद 
धूप खिला है आज 

कितने दिनों के बाद 
तुम सब को धूप दिखाया आज 

कितने दिनों के बाद 
कराही में नहाये आज 

कितने दिनों के बाद 
पंख फड़फड़ाये आज 

कितने दिनों के बाद 
फुर्सत के पल निकाले आज 

कितने दिनों के बाद 
पीठ सहलाये आज 

कितने दिनों के बाद 
हमारे आसपास मंडराए आज 

कितने दिनों के बाद 
कमरे का मुयायना किये आज 

कितने दिनों के बाद 
यहाँ-वहां उड़ कर तंग किये आज  

बहुत दिनों के बाद 
गंदगी साफ करवाए आज 

कितने दिनों के बाद 
गुस्सा दिलाये आज 

कितने दिनों के बाद 
दिल बाग-बाग हुआ आज 
  

DRY/25/01/2013/11.09.am
     

Tuesday 22 January 2013

ये शिविर लगाते हैं,वो शाखा लगाते हैं



ये शिविर लगाते हैं,वो शाखा लगाते हैं 

रमेश यादव 
  
1
हामी भरने का लाभ 
चुप रहने का मुनाफा 
सब कुछ हजम करने का प्रसाद 
सहमति का सुख 
असहमति का खतरा 
विरोध का खामियाजा 
और 
विद्रोह का अपना ही आनंद है

DRY/22/01/2013/07.38.pm
2
एक वो हैं
टीवी को
किचन के टांड़ पर रखकर खुश हैं
एक हम हैं
महीने में रिचार्ज भी कराते हैं
देखते भी हैं
और परेशां भी रहते हैं...
DRY/ 21/01/2013/ PM

3
वाह वाह क्या बात है...!

मक्खन पर मक्खन लगाये जाओ
मंच-दर-मंच पाये जाओ
ओरों को बरगलाये जाओ
खुद अकेले फल खाए जाओ
हर तरफ हो तुम्हारी ही शोहरत
खुद के लिए
पुरस्कार का सेज सजाये जाओ
औरों के लिए षड्यंत्र रचाए जाओ
गले में लटकाकर समाज सेवा का पट्टा
प्रगतिशील भी कहलाये जाओ
जाति का गिरोह भी बनाये जाओ
छींक-पाद कर अपने वाल पर
फेसबुक पर परचम फहराए जाओ ...

DRY/ 21/01/2013/07.51.PM

4
वो साहब कहे
और
सुर्ख़ियों में छा गये
हम हुजूर-हुजूर
करते रहे मगर
चर्चा नहीं हुई

DRY/ 21/01/2013/06.05pm

5
तुम्हारे 
सत्ता के आंसू से 
आज अखबारों के रंग-बिरंगे पन्ने भींगे मिले 
हम सदियों से संघर्ष करते रहे 
आंसू बहाते रहे 
आज तक कोई पोछने वाला न मिला ...

DRY/ 21/01/2013/05.43.pm
6
विचार वालों के पास बंदूक-तलवार नहीं होते
बंदूक-तलवार वालों के पास विचार नहीं होते...
खोखला दोनों होते हैं...?

DRY/18/01/2013 
7

चिंतन भी तुम्हारी 
मनन भी तुम्हारी 
चयन भी तुम्हारी 
चित भी तुम्हारी 
पट भी तुम्हारी 
चट-पट भी तुम्हारी 
ख़ट-पट भी तुम्हारी 
चल हट भी तुम्हारी 
हलचल भी तुम्हारी फिर क्या ...?
'चिता' हमारी.. 'आग' तुम्हारी
अंतिम में 
जय जयकार भी तुम्हारी 
.DRY/18/01/2013/03.30pm.
8
इतना
पसंद
ना
करें
कि
मैं
अप्रासंगिक
हो
जाऊं
.DRY/18/01/2013/10.25.am
9
तुम्हारा चिंतन
आम आदमी के लिए
'चिता'
साबित हो रहा है
लकड़ी की जगह
डीजल,पेट्रोल और मिट्टी के तेल से जल रहा है ...

DRY/18/01/2013/10.13.1am.
10
तीन बजे रात में ओले का गिरना
बिजली का तड़क ना
और बारिश का होना
बालकनी में आशियाना बनाये
हमारी कबूतरों का फड़फड़ाना
उनकी फिक्र में
सोना और जागना
सुबह आठ बजे अँधेरे का छाना
दिन में रात का होना
फिर बारिश का आना
और
सर्दी से मिल जाना
बार -बार बिजली का कटना
और नेट का आना -जाना
सब कुछ का साजिश में तब्दील हो जाना

DRY/18/01/2013/9.16 am.
11
क्या फर्क है
उनमें और
तुममें
वे शाखा लगाते हैं
तुम शिविर लगाते हो....

DRY/17/01/2013/12.05.pm

Friday 11 January 2013

हाईकोर्ट के आईने में देखिये,दिल्ली पुलिस का चेहरा


हाईकोर्ट के आईने में देखिये,दिल्ली पुलिस का चेहरा  

रमेश यादव /dryindia@ gmail.com 

11 जनवरी,2013.नई दिल्ली.  

दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट को जो सीलबंद रिपोर्ट सौंपी है,उसमें उन अधिकारीयों के नाम नहीं हैं,जो १६ दिसम्बर की रात उस इलाके में गश्त पर थे और जिम्मेदार हैं.इस बात से चीफ़ जस्टिस की अध्यक्षता वाली बेंच ख़ासा नाराज़ है.
सोचिये जरा !
जब दिल्ली पुलिस हाई कोर्ट को धोखा दे सकती है या धोखे में रख सकती है तो अनुमान लगाइए आम आदमी के साथ उसका कार्य-व्यवहार कैसा होगा...?
मुझे लगता है भारतीय पुलिस का यह चरित्र खुद अकेले का गढ़ा हुआ नहीं है,बल्कि राजसत्ता ने इसे अपने सुविधा के हिसाब से सदियों से गढ़ता आया है.अपनी मर्जी की व्यवस्थ के लिए.अपने सवार्थ की रक्षा के लिए और अपने खूंखार,निरंकुश और जनविरोधी सत्ता को बनाये रखने के लिए.
भारतीय पुलिस जानती है कि सरकार कोई भी हो उसे क्या करना है और सरकार उससे कौन-कौन से काम लेगी.क्यों ? और किसके हित के लिए...
उसे यह भी पता है कि सरकार कैसे चलती है और उसे चलाने के पीछे कौन सी मजबूरियां हैं और उसका समाजिक सरोकार कितना गहरा है.यहीं बात और भरोसा उसे राजसत्ता का पोषक बनाती है और समाज विरोधी.
आजादी के पहले और आज़ादी के बाद के पुलिसिया चरित्र में कोई खास बदलाव नहीं आया है.जैसे राज सता और उसके चाल,चरित्र और चेहरे में.
जब राजसत्ता समाज के प्रति
संवेदनशील
जिम्मेदार
जवाबदेह
प्रतिबद्ध
निष्पक्ष और
ईमानदार

नहीं है तो फिर अकेले पुलिस से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं की उसका व्यवहार
जनपक्षधर और
संवेदनशील होगा.
एक बरगी राजसता का चेहरा 
निरंकुश
निर्मम 
निर्दयी और
अमानवीय
दिखता और लगता है.ठीक यहीं चरित्र और चेहरा पुलिस की भी है.
जब इतने बड़े जनाक्रोश/आन्दोलन और मीडिया की सक्रियता के बावजूद दिल्ली पुलिस हाई कोर्ट तक को धोखे में रख रही है तो समझिये यह उसके अकेले का फैसला नहीं हो सकता है.इसमें पूरी तरह से सरकार का संरक्षण प्राप्त है.
यदि ऐसा नहीं होता तो चीफ़ जस्टिस क्यों सवाल उठाते कि उक्त घटना के लिए "केवल एसीपी क्यों ? डीसीपी क्यों नहीं,कमिश्नर पर कार्रवाई क्यों नहीं...? "
गौरतलब है कि बुधवार को दिल्ली हाईकोर्ट उक्त मामले पर केवल जूनियर पुलिस अफसर को निलंबित करने और पुलिस आयुक्त सहित वरिष्ठ अफसरों को जवाबदेह नहीं बनाने पर एतराज जताया है.

सुझाव
१. पहले तो राजसत्ता खुद अपना चाल,चेहरा और चरित्र मानवीय और सामाजिक बनाये.
२. सही मायने में लोकतान्त्रिक ढांचे को मजबूत और विकसित करे.
३. निजी हित के लिए राजसत्ता का दुरूपयोग बंद करे
४. समाज के प्रति जिम्मेदार,जवाबदेह,प्रतिबद्ध,निष्पक्ष और ईमानदार बनाये.
५. आम आदमी के सरोकार को अपने मिशन का लक्ष्य समझें .
फिर इन्हीं मूल्यों को केन्द्रित करके
पुलिस को प्रशिक्षण दे तभी पुलिस का चाल,चेहरा और चरित्र सामजिक और मानवीय होगा.
वरना जब तक राज सत्ता का चाल,चेहरा और चरित्र नहीं बदलेगा,
तब तक आप पुलिस थाना खोलने,पुलिस की भर्ती करने,अत्याधुनिक तकनीक और हथियार देने की माँगा केरे रहिये,इससे भी कुछ बदलने वाला नहीं है.
आखिर कार इन सबका प्रयोग एक दिन आम आदमी के दमन के लिए ही किया जायेगा न की सामाजिक सरोकार के लिए....

जागते रहिये.................................................... 

Tuesday 8 January 2013

निराशा राम बापू:अध्यात्म का डाकू,विचार से टापू


महिला विरोधी,जालसाज,लफ्फाज और भूमि हरण गुरु !

रमेश यादव/dryindia@gmail.com 

7 जनवरी,2013.नई दिल्ली. 

आपको लोग 'आध्यात्मिक गुरु आसाराम बापू' कहते हैं.आप ने बतौर बापू अब तक लोगों कोक्या दिया हैं..? सिवा उल्लू बनाने और अध्यात्म के नाम पर लोगों को लूटने और उनकी जेब काटने के... 
आप एक नम्बर के 'भूमि हरण गुरु' हैं.देश के हर हिस्से में भूमि कब्जा किये हैं.
करोड़ों-अरबों रुपये की संपत्ति हड़प कर रखे हैं.आपके ही आश्रम में नाबालिग बच्चों का खून हुआ.
आप इतना ही प्रतापी थे तो बच्चे आपका नाम लेकर बच क्यों नहीं गये या खूनी आपके प्रताप से डरे क्यों नहीं...?
जब आप संत (?,तथाकथित) होकर लोगों के बापू कहने से नहीं पिघलते हैं तो हैवानियत पर उतारू लोग  भाई कहने से कैसे पिघलेंगे...?

मुझे लगता है आप पर पांच किस्म के मुकदमे दर्ज होने चाहिए-  
1. हत्या
2. आध्यात्मिक धोखे देने
3. अनैतिक बयानबाजी
4. देश के विभिन्न भागों में भूमि कब्ज़ा करने और
5. अध्यात्मिक प्रवचन के बावजूद समाज सुधारने में असफल साबित होने,जालसाजी,लफ्फाजी और मूर्ख बनाकर शिष्यों का गिरोह आदि.
......................................................................................
इनके चाल,चेहरा और चरित्र पर तीन कविताएँ !
एक  
ऐ धर्म (?) के आसा
अधर्म के बतासा
तुम्हारे जबान से
हुई हताशा
महिलाओं को निराशा
बनकर अध्यात्मिक
करते हो तमाशा
नाम है बापू
जमीन के हो डाकू
विचार से हो टापू
राम तुम बने नहीं
रावण को छोड़े नहीं
धर्म के ढक्कन से
ढांके हो खुद को ....
.............................
भाग दो

बापू के भेष में
संस्कृति के ड्रेस में
धर्म के धरातल पर
संस्कार के खेत में
मूल्य के मंदिर में
सिद्धांत के सिद्धपीठ में
परंपरा के परवरिश में
नैतिकता के नाव में
आडम्बर के छाँव में
अध्यात्म के अध्याय में
आश्रम के आँगन में
पाखंड के आवरण में
बोते हो-
बे-शर्मी का बीज....
..............................................
भाग तीन

मजहब के मर्म को
माटी में मिलाते हो
पवित्रता के पर्व को
छाती से चिपकाते हो
शिक्षा के नाम पर
अशिक्षा फैलाते हो
ढकोसला के ढक्कन से
धर्म की घुट्टी पिलाते हो
प्रवचन के पंच से
उद्गार के मंच से
उद्धार के नाम पर
उद्धम मचाते हो
दुनिया में घूम-घूम कर
उद्दम बढ़ाते हो ...
07/01/2013/11.28.pm.

Friday 4 January 2013

भागवत के रामराज्य में स्त्री और गाय की आज़ादी की परिधि



एक 

भागवत का संघ जिस रामराज्य का कल्पना करता है... 
उसमें पुरुष उत्तम होगा
और स्त्री सीता... 
समाज दो हिस्सों में बंटा होगा... 
एक पर रावण का कब्ज़ा होगा
दूसरे पर राम का...

फिर जो नया समाज बनेगा
यानी रामराज्य का निर्माण होगा
जिसमें सभी पुरुषों को
'निक्कर पहनना,टोपी लगाना और लाठी' रखना अनिवार्य होगा
लड़कियों को स्कर्ट पहनने पर परम्परा,संस्कार,मूल्य
और समाज विद्रोही माना जायेगा...
महिलाओं को एक हाथ का 'घूँघट' काढ़ने की अनिवार्यता होगी....

स्त्री,गाय और गाय,स्त्री की तरह खूंटे में बंधीं होगी...
यहीं उसके आज़ादी की परिधि होगी...

DRY/04/01/2013/09.36.pm


दो 


पूंछ आयोग ! 

इसके पूंछ में आग लगा दो 
नहीं...नहीं... 
इसके पूंछ को ही काट दो
अरे नहीं भाई रुको 
क्या आदिम फार्मूला अपना रहे हो 
इसके पूंछ को 
कुछ साल के लिए रस्सी से बांध दो 
क्या बकवास है
यह तो सामंतवादी फार्मूला है
इसका बहुत सरल इलाज है
रासायनिक दवा का इस्तेमाल करो
पूंछ ही नहीं उगेगी
क्यों गोल-गोल घुमा रहें हैं
20 बीसवीं सदी के फार्मूले को
21 वीं सदी में आजमा रहे हो
तब क्या होना चाहिए
मेरा खयाल है
एक आयोग बना देना चाहिए
यह क्या करेगा
यह बताएगा
पूंछ का क्या किया जाए

DRY/04/01/2013/06.47.pm

Wednesday 2 January 2013

बाज़ार शोक मनाता नहीं,शोक को बेचता है





बाज़ार शोक मनाता नहीं,शोक को बेचता है 










बाज़ार सभ्यता,संस्कृति,संस्कार,सिद्धांत,नैतिकता,मूल्य और सरोकार से नहीं चला करता है और न ही इसे वह गढ़ता है.

सामाजिक जीवन में भले किसी अप्रिय घटना से शोक हो,लेकिन बाज़ार में कभी कोई शोक नहीं होता.बाजार कोई निर्जीव वस्तु नहीं है.

बाज़ार का जीवन,उपभोक्ता हैं.बाज़ार को चलाने वाला भी आदमी है और खरीदर भी आदमी ही है .

बाज़ार मूल्य और संस्कार से नहीं चला करता.बाज़ार को मुनाफा चाहिए.जाहिर है,मुनाफा नैतिक मूल्य से नहीं आता.

इसके लिए चोरी,कालाबाजारी,लूट खसोट,गलाकाट प्रतिस्पर्धा और मुनाफाखोरी की संस्कृति प्रबल होती है..ये सब भी आदमी ही करता है...फिर आदमी क्या है ...?

फिर यह सब करते हुए आदामी का सभ्यता,संस्कृति,संस्कार,सिद्धांत,नैतिकता,मूल्य और सरोकार कहाँ गायब हो जाता है...? इसे गायब करने वाला कौन है...?

आखिरकार बाज़ार में खड़ा बिक्रेता और उपभोक्ता दोनों ही आदमी हैं.दोनों एक ही समाज से आते हैं.फिर संकट कहाँ है.समाज या आदमी के स्तर पर है...?

नये वर्ष को लेकर हमें कोई उत्साह नहों होता.इस बार का माहौल इतना गमगीन था कि पहले से ही मन व्यथित था.एक जनवरी को बाज़ार को देखने का मन हुआ.सो साकेत चला गया...वहां एक साथ कई मॉल हैं.एक दो में जाना हुआ.

मॉल रंग बिरंगे रोशनी से जगमग था.उसकी चमकदमक देखने लायक थी.आलम यह कि आप दूसरी तरफ देखकर कदम नहीं रख सकते थे.यदि रखने का जोखिम भी उठाये तो,आपके पहले किसी और के कदम मौजूद मिलते...(चित्र देखें- 13 94,95,96,97) तमाम चकाचौंध के बावजूद मॉल में मन नहीं लगा,बाहर निकल आये.

खोखा मार्केट (साकेत में) से पहले सनातन धर्म मंदिर (संभवतः,आस्था न होने की वजह से बहुत से मामले में अनभिज्ञ हूँ.) के पास लोग प्रसाद लेने के लिए कतार में खड़े थे. (चित्र देखें- 1398) लगभग सभी तरह के लोग.

मेहरौली-बदरपुर रोड पास करते समय देखा.एक बुजुर्ग महिला दुकान के पास,सड़क के किनारे अपना आशियाना बनायीं हैं.उनके पास सर्दी से बचने के लिए जो ओढ़ना-बिछौना था,सिर्फ कल की सर्दी ही नहीं,जिसका न्यूनतम तापमान 4. कुछ था,बल्कि पूरी सर्दी के लिए अपर्याप्त था.(चित्र देखें-1400).

उनके दस कदम की दूरी पर एक रजाई बनाने वाले की दुकान थी.उस वक्त भी रजाईयां बन रहीं थीं...समय कोई साढ़े का रहा होगा..

और अंत में देखिये इस महीने की पत्रिकाएं खरीदने गये,उसकी दुकान पर एक पत्रिका थी.उसपर क्या लिखा था खुद ही पढ़ लीजिए..इस चित्र के जरिये-चित्र -1399

अभी फोटो अपनी मोबाइल से...