Tuesday 19 March 2013

ठूंठ बनकर खड़ा हूँ


1
वो
हममें तलाशा रहे थे
प्यार का समंदर
और
खुद मरुस्थल बन भटकते थे
2
भोगवादी
भोगतंत्र के खिलाफ़
लोकवादी
लोकतंत्र के पक्ष में खड़े हों …!
3
लड़ो !
लोहा लाल है
कि
अभी लड़ो
कि
लड़ने से ही मिलेगी मुक्ति
माला जपने से नहीं…
4
ख़्वाब
में करवट बदले
नींद
खुली
और
सपने टूट गये
5
तुम्हारा
वहीँ एक
लफ्ज़
दिल के लिए संजीवनी है 
जिसे
बार-बार सुनने को
मन रहता है आतुर
करता है प्रतीक्षा
अगली बार का
6
…भाग एक…
समाज
में दो तरह का खूंटा गाड़ने का प्रचलन है
एक पुरुष गड़ता है
कि
स्त्री उसके परिधि से
दूसरी परिधि में न जा सके
दूसरा खूंटा
पत्नी गड़ती
कि
उसका
पगहा तोड़ाकर
दूसरे का खेत न नुकसान कर दे
7
…भाग दो…
एक तीसरा खूंटा भी है
जो हमेशा खाली रहता है
न पुरुष स्त्री को बंधता है
न स्त्री पुरुष को
बांधने की स्थिति में
दोनों
एक दूसरे का खूंटा,पगहा सहित उखाड़ कर भाग जाते हैं…
भारत में यह खूंटा,पश्चिम से आयातीत
8
मन
कर रहा है
एक मंदिर बनाऊं
और
वहां सिर्फ लोकतंत्र का कीर्तन कराऊं
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हमारा 
लोक तंत्र हमारा
भईया लोकतंत्र हमारा…
हे
हाँ
लोकतंत्र हमारा …
भईया लोकतंत्र हमारा ….
एक बार जोर से
भारतीय गण बोलो
इंडियन लोकतंत्र की जय ………………….
9
तुम 
अमरबेल की तरह
दाखिल हुई
हमारे जीवन में
और
निरंतर फैलती गयी
फैलती ही गयी
और
मैं
सिकुड़ता मुरझाता सूखता गया
और
अब
ठूंठ बनकर
खड़ा हूँ
लोग लगावन के लिए
ले जाते हैं
हमारी डालियों को
तोड़कर
……………………….फ़िलहाल……..
19/03/2013/07:30.

Tuesday 12 March 2013


‘लाश’ हैं तभी तो खास हैं


बेचारे
ज्ञान
का मल्टी नेशनल ब्रांड बने बैठे हैं
समझदार
इतना कि
लाश
बने बैठे हैं
झुके रहते हैं सदा
घुटनों के बल
इसी खूबी से तो
आकाश
में जमे बैठ हैं
………………….अधूरी……….
12/03/2013/11:00
………………………………………………………………………………………………………………….
देह को बांधने का परम्परागत षड़यंत्र 
गले
में एक हाथ का
मंगल सूत्र लटकाना
मांग
एक किलो सिंदूर से भरना
हाथ
में रंग-बिरंगा रस्सी नुमा धागा बांधना
नाक-कान
छेद कर उसमें बहुरंगी तार लटकाना
कमर
में कमर बंद
पैरों
में पायल
अंगुलियों
में बिछिया
और
अंगूठी पहनना
यह
स्त्री
देह को बांधने का परम्परागत षड़यंत्र है
या
उसका स्वतंत्र चुनाव
…………………………………………अधूरी…………..
12/03/2013/10:00
…………………………………………………………………………………………………..
ग़र
होता
सरकारी
पाहून
मैं
लोकमहल में होता 
सोता
सोने के पलंग पर
राज्यवार कब्ज़ा करता 
ठेका लेता
जंगल-जंगल
मंगल गाता
जन-जन
केला खूब उगता 
एक अधेला देता
पूरा खेत लेता 
लोकतंत्र
के लोकल ट्रेन से
लोक-लाज सब ढोता 
सरकारें सब पांव धोतीं
इतना पांव फैलता 
जो जमीन सरकारी होती
अपना झंडा फहराता 
कोर्ट-कचहरी अपनी मुट्ठी में
नौकरशाही से घास छिलवाता 
राज सत्ता पर राज़ करता
सब कुछ पर्दा डालकर करता …
नोट: यह हमारी कल्पित कल्पना है.इसका किसी जिंदा या मुर्दा आदमी के ख़्वाब से कोई सम्बन्ध नहीं है.  12/03/2013/11.40pm

Sunday 10 March 2013

जहाँ-जहाँ ठहरे थे

साहित्य में
सोना
खोना
और
पाना
फिर
निरंतर पाते ही जाना
पाते ही जाना
और
अंत में
जब
सब कुछ हासिल कर लेना
तब
जिंदगी की साँझ बेला में बैठकर
रोना
और सोचना
कि
पाने के पड़ाव पर
जहाँ-जहाँ ठहरे थे
उस वक्त पर हाथ फेरना
और
सहलाना
याद करना
कि
ऊंचाई की चढ़ाई में
पढ़ाई की अपेक्षा
शरीर का कितना निर्णायक योगदान था …

Wednesday 6 March 2013

इतराइए मत,मूल्यांकन कीजिए

16 दिसंबर, 2012 की पीड़िता को अमेरिकी पुरस्कार मिलने की खबर को भारतीय मीडिया छाती फुलाकर-फुलाकर प्रकाशित-प्रसारित कर रहा है....

लेकिन किसी मीडिया ने अमेरिका पर ये सवाल नहीं उठाया कि --
1. दुनिया में मानवाधिकार हनन का सर्वाधिक गुनहगार कौन है..? 
2. अफगानिस्तान से लगायत ईराक में अमेरिका ने जो कत्लेआम किया...उसमें महिलाएं भी शिकार हुईं.
3. अमेरिकी-नाटो सेनाओं के अत्याचार के खिलाफ़ संघर्षरत जमात में महिलाएं भी शामिल थीं और शहीद हुईं..
4. दुनिया में घूम-घूमकर पुरस्कार बांटने वाला अमेरिका अपने करतूतों का समीक्षा क्यों नहीं करता...?
5. लाखों निर्दोष लोगों के कातिल देश के हाथ बहादुरी का पुरस्कार लेना और गर्व प्रकट करना.कितना न्यायप्रिय कदम है ....

मीडिया को आत्ममंथन और अमेरिकी मानसिकता की समीक्षा करनी चाहिए...
भारतीय न्यायप्रणाली में पीड़िता के दोषियों को सजा और लड़कियों/महिलाओं की आज़ादी और सम्पूर्ण सुरक्षा ही उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान होगा ....
यह काम भारत सरकार को करना है...अमेरिका को नहीं..?

Monday 4 March 2013

सील,लोढ़ा और चटनी



एक साथ दस कवितायेँ......  


........एक...... 

भारतीय 
राजनीत एक ऐसा 
पौधा है 
जिसे 
साम्प्रदायिकता का लहू 
भाई-भतीजावाद का 
हवा 
जातिवाद का धूप 
और 
क्षेत्रवाद का खाद-गोबर सींचता है 
ब्रितानी हुकूमत से 
मुक्ति से लगायत 
अब तक 
यह राजनीतिक पौधा
इसी जमीं पर फल-फूल रहा है
इसकी चालक शक्ति 
परिवारवाद है 
और 
लोकतंत्र 
हाथी का दांत 
......................."अधूरी" 
DRY/04/03/2013/09:00PM


.....दो..... 

जिस 
दौर में वो 
तंदूरी मुर्गी बनकर 
अल्कोहल से गटकने के लिए
लोगों को आमंत्रित कर रही थी 
ठीक 
उसी दौर में 
मणिपुर की 
इरोम शर्मीला 
सैन्य विशेषाधिकार क़ानून के ख़िलाफ़ 
आज़ादी और लोकतांत्रित अधिकारों के लिए 
12 सालों से अनशनरत 
और 
जल,जंगल,जमीन और 
जनतंत्र के लिए 
सोनी सोरी 
जेल में 
.................अधूरी.....
04/03/2013/08.30PM


.....तीन..... 

साम्राज्यवाद 
सील है 
और 
पूंजीवाद लोढ़ा 
जिस पर सर्वहारा वर्ग 
पीसा जाता है 
चटनी की तरह 
.......................अधूरी..... 
DRY/04/03/2013/07:02.PM


.....चार..... 

जब 
भी गुजरता हूँ 
मस्ज़िद के रास्ते 
इमाम बोलता है 
देखो 
काफ़िर जा रहा है
बढ़ता हूँ 
आगे 
मंदिर 
के रास्ते 
पुजारी बोलता है 
देखो 
नास्तिक जा रहा है 
..................................(अधूरी) 
DRY/02/03/2013/08:00....................................


.....पांच..... 

गाँव
होता तो खेत में मड़ई लगाकर भी रह लेते 
यहाँ पैसा है मगर 
मड़ई
के लिए जमीन मयस्सर नहीं...

....छः.... 

तनहा 
ही कट गए 
जवानी के रास्ते 
बंजर हुई ऊर्जा 
अकादमी के रास्ते 
कंघी हुई बेरोजगार 
संघर्ष के रास्ते 
छुटा गाँवगिरांव 
रोटी के वास्ते 
...............................इसके बाद का इंतज़ार. 
DRY/01/03/2013


.....सात..... 

तुम्हें 
याद है 
भूतपूर्व प्रधानमंत्री 
की प्रतिमा के नीचे 
मिलना
बैठना
घंटों बात करना
फिर भी 'वोबात कहने के पहले 
समय का खत्म हो जाना 
आँखों का मिलना
तरल हो जाना 
फिर मिलना 
और सहम जाना 
जमीन में 
नज़रों को गड़ा देना 
और शून्य में चले जाना 
वापस आना 
उठ का चल देना 
बिना कुछ बोले 
अपने में खोये 
.............अधूरी......
DRY/28/02/2013/07.OOPM

.....आठ..... 

आज 
का वह पल अमर हो गया.
खूबसूरत यादों में
बेहतरीन बातों में
सरोकारी संवादों में
सामाजिक सवालों में 
क्यों 
न यह पल रोज़ आये 
एक नये संकल्प के साथ 
नये ख़्वाब के साथ 
एक 
नयी उम्मीद के साथ .... 
कल 
आज और कल से जुड़ा हुआ 
....................................
DRY/28/02/2013

......नौ..... 

कबूतरों
और उनके चूजों को कैसे बताऊँ
मकान मालिक ने कर दिया है
फ़्लैट का सौदा
खरीद लिया है
शिक्षा का एक व्यापारी 
मार्च में करना है खाली
ढूंढना है नया आशियाना
कौन डालेगा उन्हें दाना
उजाड़ देगा
उनका आशियाना
छूट जाएगा अपुन का सालों का साथ
रह जाएँगी
सिर्फ उनकी यादें.....
01/03/2013/09:00

.....दस..... 

उनकी खुशी,हमारा भ्रम

वे  
जब आपसे मिलकर हँस रहे होते हैं 
समझिये
अन्दर से आपको फांसने की तैयारी कर रहे होते हैं
वे
जब आप पर खुश हो रहे होते हैं 
उनके
अन्दर नाराज़गी की भट्ठी भभक रही होती है
वे  
जिस समय आपकी तारीफ़ कर रहे होते हैं
ठीक उसी समय
अन्दर से षड्यंत्र कर रहे होते हैं
वे  
जब आपकी सफलता पर आशीर्वाद दे रहे होते हैं
उसी दौरान
अन्दर से श्राप भी दे रहे होते हैं
वे  
जब बधाई दे रहे होते हैं
मान लीजिये
आपकी सफाई अभियान में लगे होते हैं


वे
जब सहयोग का वादा करते हैं
समझिये
असहयोग की जमीन तैयार कर रहे होते हैं  
वे
जब आपकी प्रगति पर प्रफुल्लित हो रहे होते हैं
कब्र खोदाई में भी लगे होते हैं
वे
जब आपका उपकार रहे होते हैं
समझिये
फुफकार रहे होते हैं
वे
हर मामले में अभिनय कर रहे होते हैं
हमें भ्रम होता है
सविनय
सब कुछ हमारे लिए कर रहे होते हैं 
.............................फ़िलहाल इतना है.संपादन,संशोधन और विस्तार बाद में 
DRY/25 /02 /2013/11:00PM.   

Friday 15 February 2013

बस्तियों की तरह उजड़ते हैं दिल यहाँ


दिल  
एक तरह का नगर है
जिसे कुछ लोग बसाते हैं
और
कुछ लोग इसे उजाड़ते हैं
यहाँ भी पतझड़ और बसंत का
आवागमन होता है
न सारा दिल एक जैसा होता है
और
न सारा नगर  
कुछ दिल यहाँ भी आँधियों से उजड़ जाते हैं
और
कुछ दिलों के षड्यंत्र से उजाड़े जाते हैं
उजड़े हुए दिलों में  
कुछ नयी बस्तियां भी बस्ती हैं
कुछ दिलों का काम ही है
बसे हुए दिलों को बस्तियों की तरह उजाड़ना
जैसे कभी-कभी उजाड़ती है सरकार  
झुग्गी-झोपड़ियों को  
हाई-वे के किनारे बसे गाँवों को
आम आदमी के भावों को
दिल
आखिर दिल ही तो है
जुड़ना और टूटना इसकी प्रकृति है
प्रकृति भी तो ऐसी ही है
उसके स्वरुप में भी तो एकरूपता का आभाव है
फिर
दिल,नगर और प्रकृति में अंतर कैसा ?
है न
विविधता और खूबियों का  
समानता और असमानता का
लगाव और अलगाव का
जुड़ाव और विलगाव का
मिलन और विछोह का
हरियाली और सुखा का  
कभी-कभी लगता है
हमारा दिल मरुस्थल बन गया है
मरुस्थल में भी तो नगर हैं
और
नगरों में मरुस्थल  
यह भी तो    
प्रकृति का ही एक रूप है
जैसे मरुस्थल जलता है
वैसे ही
दिल भी जलता है
गोयठे की आग की तरह नहीं
कोयले की आग की तरह भी नहीं
लकड़ी की आग की तरह भी नहीं
कभी जंगलों को जलते हुए देखा है
ठीक वैसे ही जलता है
अपना दिल
अबूझ पहेली की तरह   
हर वक़्त
हर मौसम में
आज भी जल रहा है
और
कल भी जलेगा
जैसे जल रहे हैं
नगर
और
जल रही है प्रकृति  
वैसे ही जल रहा है
अपना दिल
............................(अधूरी)
15/02/1203/04:00pm.

सुनो ! मेरा विद्रोह गान



............बीज..........

मैं
बीज हूँ
बंज़र जमीन का  
निकला हूँ
धरती को चीरकर
उठा हूँ
झंझावातों से जूझ कर
खड़ा हूँ तूफानों से भींड़कर
सोया हूँ काँटों के सेज पर
उबड़-खाबड़ पथ पर
चला हूँ अकेले तपकर
आधे पेट खाकर
फटा-पुराना पहिनकर
किया है हासिल लक्ष्य को
सांचे के बाहर डटकर
पौधे जैसा मेरा जीवन
बनकर बीज  
किया है
संघर्ष-सृजन …

14 /02/2013/1:58.am
   
-----------विद्रोह गान................ 
तुम हो
सत्ता-प्रतिष्ठान
कैसे करूँ तुम्हारा बखान
गाऊं कैसे
तुम्हारा महिमागान  
तुमने
हमारे अरमानों को है रौंदा
भावनाओं का किया है सौदा  
संवेदनाओं का किया है दमन
संभावनाओं को किया है दफ़न
सदियों से छला है
हमारे सरोकारों को
हमारे सृजनशीलता को किया है शहीद
तुम ही बताओ
गाऊं कैसे  
गान तुम्हारा
शोषण का गुणगान तुम्हारा
क्रूरता का विजय गान तुम्हारा
अब दिल करता है
गाऊं बगावत की गीत
मुक्ति का राष्ट्रगान
खबरदार जो बढ़े तुम्हारे कदम
हमारी तरफ
अपने कानों को कह दो हो जाएँ सावधान
सुनने के लिए मेरा विद्रोह गान
यह कदम नहीं रुकेंगे
एक इंच नहीं झुकेंगे
अब लेकर ही रहेंगे
अपना हिस्सा
खत्म होगा
तुम्हारे  सदियों का किस्सा
मांगोगे तुम जीवन का भिक्षा
  
................तपन.............

सर्दी हो या बारिश  
दमन हो या तपन
कदम तुम्हारे रुके नहीं
इरादे तुम्हारे झुके नहीं
तपती दिन-दुपहरिया में
नंगे पैर का चलना
छन-छन तलुवे का जलना
गोंद में हमारा फुदकना
खुशी से तुम्हारा चहकना
दर्द हमने देखा नहीं
जर्द तुमसा सहा नहीं
फर्ज तुमसा निभाया नहीं
हमेशा करता हूँ अर्ज
आंसुओं बाहर निकलना नहीं
कर्ज तुम्हारा मिटा नहीं
ममतामई मर्म सही
अपना यही कर्म गहि
माँ की ममता
प्यार की समता

DRY/14/02/2013/12:30 

प्रेमियाये,प्रेमियों के नाम !


जब
मुहब्बत तिजारत बन जाये
लेकर फुल साल में एक दिन
चुपके से पार्कों-रेस्तरां में मिला जाये
कसमे-वादे,प्यार-वफ़ा
का दावा किया जाये
जब बात न बने
हो जाएँ असफल
चलते राह तेज़ाब क्यों फेका जाये
ताक-झांक तो पूरे साल करते हैं
मौका मिलते ही बलात्कार क्यों किया जाये
ग़र
प्रेम हो दिली
तो फिर दिखावा क्यों किया जाये
इसे अंतस मन में ही क्यों न रखा जाये
बाज़ार के हवाले क्यों किया जाये
प्रेम को
भोग
की वस्तु क्यों बनाया जाये
क्यों न
स्त्री को
‘यूज एंड थ्रो’ की जगह
प्रेम की पवित्रता के सूत्र में बंधा जाये….
DRY/14/02/2013/11:27/am.

भोजपुरी बनी ‘भोग-पुरी’ !


रमेश यादव.12 फरवरी,2013.नई दिल्ली.  
 सत्ता प्रतिष्ठान और उसके इर्द-गिर्द मंडराने वालों के लिए भोजपुरी इन दिनों भोग-पुरी‘ साबित हो रही है,बावजूद इसके भोजपुरी को ओढ़ने-बिछाने वाले वगैर दिखावा किये इसे अपने रगों में जी रहे हैं.
किसी भी भाषा को आम अवाम ज़िंदा रखती है और उसका निरंतर सृजन भी करती है,सरकारें नहीं.सरकारें तो सिर्फ बोली/भाषा की औजार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं.वहां तक अपनी घुसपैठ बनाने के लिए.
 बोली-भाषा को सर्वाधिक खतरा आम आदमी से नहीं बल्कि,उन्हें ज़िंदा रखने और सृजन के लिए बनी आकादामियों और उनके संरक्षकों से है.
 आमतौर से देखा गया है जो लोग सत्ता प्रतिष्ठान के इर्द-गिर्द गणेश परिक्रमा करते हैं,वहीँ आकादामियों के खेवनहार बन जाते हैं.
 कई बार तो सत्ता के साथ सरोकार रखने वाले ही बोलियों-भाषाओँ के भी सरोकारी बन जाते हैं.अंग्रेजी बोलने वाले हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और हिन्दी बोलने वाले मैथिल और भोजपुरी की.अन्य बोलियों-भाषाओँ के साथ भी यही हाल होगा.
 यानी भोजपुरी के अंडे को अंग्रेजी को पालने की जिम्मेवारी दी गई है.यह ठीक वैसे ही है जैसे कोयल के अंडे को कौवा पाल रहा हो…
ऐसा नहीं है कि भोजपुरी बोलने वालों का अकाल है.यह संकट जिम्मेवारी के स्तर पर है.    
 आमतौर पर देखा गया है कि बोलियों-भाषाओँ की जिंदगी सेमिनारों/ कार्यशालाओं/ संगोष्ठियों/ परिचर्चाओं और खानापूर्तियों पर निर्भर होती है.बजट सत्र के पूर्व अकादमियों में अधिक गहमागहमी दिखती है.यह भी रस्म अदायगी तक सीमित है.
अकादमियों को अपने इस चरित्र से बाहर निकलने की जरुरत है.यह प्रयास कोई सरकार नहीं करेगी.जब तक इस तरह के संस्थाओं की कमान सरकारों के पास रहेगा तब तक पुरस्कारों,पदों और लाभ का बन्दर बाँट होता रहेगा.
इसको स्वतंत्र-संस्था के रूप में संचालित करने की जरुरत है.जब तक सरकारों की साया अकादमियों पर मंडराती रहेगी.तब तक सरकार के सेवक इसका भोग करते रहेंगे.
 भाषाओँ के भोगवाद के ख़िलाफ़ अभियान चलाने और जनता के सरोकार से इसे जोड़ने की जरुरत है.

Thursday 7 February 2013

श्रद्धा में नंगापन कबूल,कला में संस्कृति का संकट


श्रद्धा में नंगापन कबूल,कला में संस्कृति का संकट

7 जनवरी,2013 की शाम 7:30 से 08 बजे के बुलेटिन में फोकस टीवी ने दिल्ली के एक प्रदर्शनी में प्रदर्शित पेंटिंग-कला पर फोनों लिया. 

समाचार का विषय था- क्या पेंटिंग-कला के नाम पर महिलाओं को ‘नग्न’ दिखाया जाना उचित है ? यह महिलाओं के साथ खुलेआम मजाक नहीं है ? क्या कला-संस्कृति और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इसकी इज़ाज़त दी जा सकती है.? क्या हमारे समाज में इतना बदलाव आया है कि इस तरह के चित्रों को सहजता से स्वीकार किया जाय..? इन सवालों का हमने जो जवाब दिया और जो याद रख सका,यहाँ प्रस्तुत है,उसका सम्पादित ज़वाब...           

पहला
हम उस कला के पक्षधर हैं,जो समाज के दुःख,दर्द,पीड़ा,संघर्ष के अभिव्यक्ति को मंच प्रदान करे.
आम-आदमी का मशाल बने.कला,कला का वाहक बने.प्रगतिशील समाज और सोच का निर्माण करे.   
किसी भी कलाकार का दायित्व है कि वह रंगों-रेखाओं के माध्यम से कला को महिलाओं की इज्ज़त और आज़ादी के लिए आवाज़ बुलंद कर सके.कला को बाज़ार और व्यवसाय का हिस्सा न बनाये.      

दूसरा
आज जब किसी कला को नग्नता कहकर आलोचना की जाती है तब सोचना पड़ता है कि हमारा अतीत अधिक कला मर्मज्ञ था जहाँ हम कोणार्क से लगायत खजुराहों को देखते हैं या वर्तमान चैदहवीं सदी की मानसिकता लिए घूम रहा है.

तीसरा
इलाहाबाद के महाकुंभ में नागा बाबा आस्था और श्रद्धा के द्योतक हैं.फ़िल्में A और B ग्रेड की बन सकती हैं.इंटरनेट पर दुनिया भर की पोर्न फ़िल्में देखी या सर्च की जा सकती हैं.विज्ञापनों में महिलाओं को भोग की वस्तु बनाकर परोसा जा सकता है.
फिर कला-पेंटिंग में प्रदर्शित चित्र को घृणा,अपमान,अमर्यादा और नंगापन के तौर पर देखना कला के साथ न्याय परक नज़रिया है या अन्यायपूर्ण ...?
    
चार

जो मौजूदा कला को नग्नता के नाम पर विरोध कर रहे हैं,वे गरीबी,भूखमरी,बेरोजगारी,महिला उत्पीड़न,जातिवाद,क्षेत्रवाद,साम्प्रदायिकता,कठमुल्लावाद और भेद-भाव पर क्यों नहीं बोलते...?

करीब 80 करोड़ आबादी 20 रुपये पर जीवनयापन करने के लिए मजबूर है.पेंटिंग का विरोध करने वाले इस मुद्दे पर क्यों नहीं विरोध करते हैं...? दरअसल यह सब नज़र और नज़रिए का संकट है.कला को कला की नज़र से देखा जाना चाहिये.न कुंद मानसिकता से ग्रसित तौर पर जांचा-परखा जाना चाहिए.
            
पांच  
आज भी आदिवासी समाज में तन ढँकने के लिए महिलाओं के पास कपड़े नहीं हैं.इन मुददों पर विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं होते..? 
पेंटिंग में नग्नता का मुद्दा बनाकर विरोध करने वाले ऐसी कितनी महिलाओं को तन ढँकने के लिए साड़ी,ब्लाउज और पेटीकोट दिये हैं.


और अंत में
कला को समाज-संस्कृति और परंपरा की आड़ में न पनपने देना भी नकारात्मक सोच है.बाज़ार में मुनाफे और व्यापार के लिए कला को नग्नता का रूप देना भी कला के साथ दगाबाज़ी है.
एक कलाकार का दायित्व है कला के माध्यम से चेतनाशील और प्रगतिशील समाज गढ़ना और सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षशील जमात के आगे मशाल लेकर चलना.
हम भी इसी कला और कलाकार के समर्थक हैं.कला को बाज़ार के हवाले करने वालों के नहीं.