Wednesday 19 December 2012

दोषी को फांसी मत दो,उसे नपुंसक बनाओ और मानव अधिकारों से वंचित करो !


दोषी को फांसी मत दो,उसे नपुंसक बनाओ और मानव अधिकारों से वंचित करो !

रमेश यादव/dryindia@gmail.com/19 दिसंबर,2012   

'PETITION: delhi bus gangrape case.Demanding death penalty' / Hang The Rapists जैसे सन्देश भेजने वाले मित्रों से निम्नलिखित अनुरोध है—

बलात्कार पीड़िता के प्रति हमारी पूरी संवेदना है.हम इसके सख्त खिलाफ हैं.इस तरह की घटनाओं की कड़े शब्दों में निंदा करता हूँ..

  1. दिल्ली मुख्य मंत्री महिला,कांग्रेस की अध्यक्ष महिला,लोकसभा अध्यक्ष महिला,राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष महिला,लोकसभा में विपक्ष की नेता महिला. दोनों सदनों में दर्जनों महिला सांसद महिला...बावजूद दिल्ली और देश में महिलायें सुरक्षित क्यों नहीं हैं...?         
  2. बलात्कार के मुद्दे पर हम फांसी के पक्ष में नहीं हैं.यह एक मात्र अंतिम समाधान नहीं है.जिस अपराध में फांसी की सजा है,कितने मामले हैं,जो फांसी के तख्ते तक समय से पहुंचे या इस सजा के प्रावधान से घटनाओं पर रोक लगी हो.
  3. क्या बलात्कार प्रकरण में फांसी की सजा होने पर पीड़िता/पक्ष की लड़ाई,वकील और न्यायलय मुफ्त में लड़ेंगे या इस तरह के केस को सरकार लड़ेगी...
  4. पीड़िता के मानसिक/शारीरिक/आर्थिक/सामजिक पीड़ा की भरपाई कौन करेगा.दोषी,सरकार या समाज...?
  5. हमारा अपना विचार है-बलात्कारियों को फांसी देने की जगह,मेडिकल सहायता से,उन्हें नपुंसक बनाने के लिए नियम बनाना चाहिए.दोषियों के सभी सामाजिक,सरकारी और मताधिकार के अधिकारों और सुविधाओं से वंचित कर ताज़िन्दगी उसे सिर्फ और सिर्फ टुकुर-टुकुर देखने के लिए छोड़ देना चाहिए.  
  6. हमारा समाज का ढांचा ऐसा है,जहां बलात्कार पीड़ितों के अरमान जलते हैं/ इज्ज़त जलती है/ आज़ादी जलती है/ पूरा का पूरा उनका जीवन,ताजिंदगी जलता है.मानसिकता बदलने की जरुरत है.
  7. चैनल्स का कैमरा देखकर 'कैंडिल डांस' करने से समाज नहीं बदलेगा.खुद के वजूद के लिए जूझने वाले संगठनों / एनजीओ,बरसाती मेढक की तरह घटनाओं के बाद तर्र-टराने लगते हैं.मामला फिर वहीँ 'ढाक के तीन पात' नज़र आता है.
  8. कैंडिल अभिजात्य/मध्यवर्गीय ब्रांड है.सर्वहारा के लिए कोई कैंडिल मार्च क्यों नहीं करता...? कैमरे की रोशनी जहाँ रहेगी,कैंडिल वहीँ जलेगी...दिल्ली का इंडिया गेट हो या किसी राज्य की राजधानी या फिर जिलों के मुख्यालय.
  9. सड़क से संसद तक नियम कानून का मर्सिया पढ़ने से न बलात्कार की घटनाओं पर नियंत्रण लगेगा और न ही दोषियों के खिलाफ करवाई होगी.इस देश में क़ानूनी दाँव-पेंच का मकड़जाल बहुत जटिल है.
  10. इस तरहके मामलों पर देश में सामाजिक नियंत्रण के साधन कितने जागरूक,सक्रिय और संवेदनशील हैं.सभी को पता है.नियम-कानून के पालक कितने स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं.कई मामलों में अपराधियों,नेताओं और पुलिसका गठजोड़ षड्यंत्र करता नज़र आता है.
  11. कई घटनाओं की पटकथा फिल्म/सीरियल/विज्ञापन देखकर लिखी जाती हैं.इंडिया के बाज़ार में अपने उत्पाद को ��ेचने के लिए राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां महिलाओं को उपभोग यानी 'यूज एंड थ्रो' की वस्तु बना कर निरंतर पेश कर रही हैं,उत्पादों के विज्ञापन हों या सीरियल या फिर फिल्मों में आइटम सांग.सभी जगहों पर मुट्ठी भर महिलाओं की भूमिकाएं,बहुसंख्यक महिला समाज पर अपना प्रभाव डालता है.
  12. संस्कार/मूल्य/तहज़ीब और सुलूक जन्म घुट्टी नहीं है कि चम्मच/ढक्कन से मुंह में डाला जाए.किसी पाठ्यक्रम में पढ़ाने से भी बात नहीं बनेगी.मिजाज़ को खुला रखिये.समाज के बंद,पैबंद को खोलिए.नयी पीढ़ी को बर्बाद करने वाले विज्ञापनों को नियंत्रित कीजिये.महिलाओं के शरीर को बेचने वालों और उत्पादों पर नियंत्रण लगाइए..
  13. जिस घटना पर दिल्ली का सिंहासन और संसद हिल रहा है.गांवों/कस्बों/गरीब-गुरबों के बस्तियों में होने वाली घटनाओं की आहट दिल्ली तक क्यों नहीं पहुंचती ? वहां की घटनाओं पर स्थानीय पुलिस,राजनैतिक पार्टियाँ और एनजीओ सक्रीय क्यों नहीं दिखते ...?
  14. इस तरह की घटनाओं के पीछे के कौन से कारण हैं ? सामाजिक/ आर्थिक/ राजनैतिक/ सांस्कृतिक/ सामंती/ अभिजात्यी या  पुलिस, राजसत्ता और घटना के किरदार का आपसी गठजोड़. 
  15. राज्यसभा में अनुसूचित जातियों व जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन बिल के पक्ष में 245 सदस्यों वाले सदन में प्रस्ताव के समर्थन में 206 लोगों ने मत दिए.हरियाणा में दबंगों ने दर्जनों दलित लड़कियों /महिलाओं के साथ बलात्कार किये.
    विरोध करने पर घर जलाये,उन्हें गाँव से बेदखल किये.इस मुद्दे पर कितने सांसदों ने जाँच की या जाँच की मांग की.इस मामले पर पार्लियामेंट भी गरम नहीं हुआ,सन्नाटा छाया रहा.सब वोट का खेल है भाई ! ...

और अंत में इसे क्या कहेंगे ? 

पीएच-डी. के सिलसिले में बिहार में था.नक्सलवादी आन्दोलन को काफी करीब से देखने वाले एक प्रोफ़ेसर से बातचीत के लिए मिलाना हुआ.उन्होंने एक सन्दर्भ दिया,बोले 1970 के दशक और उसके पूर्व तक बिहार में 'डोला प्रथा' चलता था...
उन्होंने बताया गरीबों/दलितों/कमजोर वर्गों के यहाँ जब बहु-बेटियां शादी करके आती थीं,उनकी डोलियाँ स्थानीय जमींदार/दबंग जबरदस्ती अपने यहाँ कुछ दिन रखते थे,फिर वे अपने घरों में जाती थीं...
आगे बताये नक्सलवादी आन्दोलन ने इस सामंती/गुलामी की परंपरा को तोड़ा.....भोजपुर भी इसमें शामिल था... 
उस समय सरकार थी.पुलिस थी.अदालतें थीं.फिर भी यह सब कैसे होता था...?

सिंहावलोकन : समाज बदलिए.अपराधियों,राजसत्ता और पुलिस के गठजोड़ को तोड़िये.न्यायलय को सक्रिय बनाइये. इज्ज़त और आज़ादी का माहौल बनाइये.बेटी और बेटे के बीच भेद को मिटाईये.खुद को बदलिए समाज बदल जायेगा.

नोट: दहेज के लिए कितने कठोर नियम हैं.फिर भी दहेज पर नियंत्रण नहीं लगा.इस मामले में कितने दहेज लोभियों को सजा मिली,घटनाओं के अनुपात में और इस मामले में कितनों को फर्जी तरीके से फंसाया गया है.      

3 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...


दिनांक 24/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

विचारणीय लेख .... कानून तो बना दिये जाते हैं लेकिन उनका पालन नहीं किया जाता ...

Madan Mohan Saxena said...

वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.