परिधि
मैं
एक गाय थी
बचपन
में ही
बांध
दी गयी
तुम्हारे
खूंटे से
मौसम
चाहे जैसा हो
हमारी
परिधि उतनी ही थी
जीतनी
दूर तुम्हारा पगहा
हमें
जाने को ढील देता.
जब
कभी हमने कोशिश की
परिधि
से बाहर जाने की
मिल
जाती काकियों से सूचना तुम्हें
नमक-मिर्च
और चासनी के साथ
फिर
शुरू होता तुम्हारा वहीँ
परंपरागत
उपचार
मैं
तड़प उठती
हमारी
कराह
तुम्हारे
मर्दानेपन को संजीवनी देती
और
काकियों
को सुख
अगले
ही पल हमारा पगहा और छोटा हो जाता
हमारी
आजादी
तुम्हारे
खूंटे से बंधी गाय की तरह थी
छिद्र
करते रहे हम चोट
पर चोट
तुम पीती रही 'कड़वा घोट'
बावजूद इसके तुम
भूलती नहीं
हर साल रखती 'करवा चौथ'
हमारी रक्षा का
हम तो सदियों से
ठहरे शिकारी
और तुम हमारा
शिकार
हमीं बनाये
तुम्हें पूजक
हमीं चढ़ाये
तुम्हें चिता पर
हमीं हुए तुम पर
फ़िदा
तुम खुश थी कुछ
रंगों के सजावट से
कुछ गहनों के
पहनावे से
पहले तय करता था
परम्परा
और अब बाज़ार
जब तुम चलनी से
देखती हो चाँद
और बाद में हमारी
शक्ल
हजारों छिद्र
होते हैं चलनी में
लेकिन उनमे से
नहीं दीखता तुम्हें
हमारा छिद्र
कितनी प्रबल होती
है आस्था
बंद कर देती है
सभी बुराइयों का छिद्र
रमेश यादव 05/06/2012/6.42./pm
16 comments:
दोनों रचनाएँ कटु सत्य को कहती हुई .... भावपूर्ण रचनाएँ ... पुरुष हो कर आप एक नारी के हृदय को समझ सके .... आभार
शुक्रिया बहुत-बहुत ...
आभार सहित !
अति संवेदनशील प्रस्तुति..प्रभावी..
वाह......
बेहतरीन...
दोनों एक से बढ़ कर एक.....
बहुत सुन्दर!!!!!
अनु
maun hun mae....samvednsheel...
बहुत सुंदर वर्णन.... दोनों पक्षों का !
~सादर !!!
हर नारी मन की व्यथा ...बहुत खूब ...सादर
Amrita Tanmay@
शुक्रिया और आभार !
शुभकामनाओं सहित !
expression@
शुक्रिया और आभार !
शुभकामनाओं सहित !
Anita JI!@
शुक्रिया और आभार !
शुभकामनाओं सहित !
poonam जी @
शुक्रिया और आभार !
शुभकामनाओं सहित !
Anju (Anu)जी Chaudhary @
शुक्रिया और आभार !
शुभकामनाओं सहित !
वाह .....क्या विश्लेषण किया है नारी के मनोभावों का. संगीता जी की हलचल का आभार आप तक पहुँचाने के लिए.
behad gambhie aur chintniy vyakhya,
behad gambhie aur chintniy vyakhya,
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