Wednesday 28 November 2012

मीडिया,मिशन,मानवतावाद पर भारी मनी और माफियावाद




रमेश यादव / e-mail: dryindia@gmail.com
28/11/2012/ नई दिल्ली.
Zee News  

प्रकरण के बाद बहुतेरे लोग पत्रकारों और पत्रकारिता के नैतिकता,सिद्धांत और ‘मिशन’ के बारे में चर्चा करने लगे हैं.इनमें वे भी शामिल हैं,जो मीडिया संस्थानों से जुड़े हैं या दूर से तमाशा देख रहे हैं...

इस बीच कुछ ऐसे चेहरे भी देखने को मिले,जो मीडिया जगत में बगुला भगत बने घूम रहे हैं.ऐसे लोगों सिर्फ यहीं कहना है कि पत्रकारिता और पत्रकारों का मूल्यांकन करने से पहले,उन मीडिया संस्थानों का पुनर्मूल्यांकन जरुर करें,जिनमें वे (संपादक/पत्रकार/) सेवारत हैं...


इस सवालों पर ध्यान दें और खुद जवाब तलाशें !
1.सम्बंधित मीडिया संस्थान के संपादक और चोटी के पत्रकार (सभी नहीं) किसके लिए काम करते हैं औत क्यों...?  
2. संपादकों और चोटी के पत्रकारों के  'मिशन' और 'प्रोफेशन' के पीछे किसका 'मिशन' है... ?
3. सम्बंधित मीडिया संस्थानों में किन पूंजीपतियों की पूंजी लगी है,सरकार से इनका रिश्ता कैसा है...?
4. मीडिया संस्थानों को चलाने वाले बनियों/व्यापारियों/पूंजीपतियों का लक्ष्य क्या हैं और उनके सस्थानों में काम करने वाले,उनके आर्थिक हितों की रक्षा कैसे और किस हद तक झूक-लेट/रेंग कर करते हैं और क्यों...?  
5. सम्बंधित मीडिया संस्थानों का राजसत्ता / सरकार / राजनीतिज्ञों / राजनैतिक पार्टियों के साथ कैसा गठजोड़ है और किस तह तक है...
6. मौजूदा मीडिया संस्थानों में किन-किन की पूंजी/शेयर लगे हैं...ये किस हद और किस सीमा तक शेयर के आड़ में सम्बंधित मीडिया संस्थान को ब्लैकमेल करते हैं..     
7. किन-किन मीडिया संस्थान के मुखिया/मालिकान किन-किन राजनैतिक पार्टियों का पोंछ पकड़कर राज्यसभा / लोकसभा गए या सत्ता के बल पर ठेका (कोयला हो या सोना) लिए या अपने आर्थिक साम्राज्य का विस्तार किये...?     
8. इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के पास कुल जमा पूंजी कितनी है.इसके विस्तार के लिए कौन से रास्ते अपनाये गए.    
9. मीडिया संस्थानों ने जिस काम के लिए लाइसेंस लिया है,क्या वे वहीँ काम कर रहे हैं...?
10.  उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर खोजने / तलाशने के बाद शायद संपादक / पत्रकार, कम, मीडिया संस्थानों के चालक,अधिक कुसूरवार नज़र आयेंगे...        
मनी,माफिया,मीडिया,मिशन और मानवतावाद :    

अब आते हैं मुद्दे पर.हमें या लोगों को मीडिया की भूमिका को लेकर क्यों चिंता होती है...? क्योंकि हमारी आदत मीडिया या मीडिया संस्थानों को सामाजिक जिम्मेवारी,जवाबदेही,प्रतिबद्धता और मिशनरी भावना  के निगाह से देखने की भ्रमपूर्ण आदत है...
अब आप कहेंगे की बहुत सारे सवालों को मीडिया ने ही उठया या ज़िंदा रखा है.यदि मीडिया न होता तो जो घपले-घोटाले हो रहे हैं,वो उजागर न होते...
सोचिये जरा !
मीडिया तो उन्हीं सवालों को उठता रहा है,जिन्हें कुछ लोग,उठाने के लिए ‘लिक’ किये या जिनसे कुछ लोगों के हित सधते थे,वरना  पानी में रहकर मगरमछ ,पानी से क्यों बैर करेगा..?
और लाइसेंस लिया है तो अपने अस्तित्वा को बचाने के लिए कुछ तो करता रहेगा ....
मीडिया का एकतरफा मूल्यांकन करने की जगह पूँजी गत चरित्र और पूंजीपतियों के हितों और मोट रकम लेने वालों के महत्वाकांक्षाओं को भी परखने की जरुरत है....
Zee News  
तो मात्र बानगी है,जो दागी होने के बावजूद बचे हुए हैं,उनके पीछे कौन से लोग हैं या कारण हैं....सोचिये...!

कफ़न की कसक



रमेश यादव / e-mail: dryindia@gmail.com/

आज 27 नवम्बर, 2012 को माँ से बात हुई,उनकी एक बात से मैं शून्य में चला गया...फिर मेरी स्मृति की रील अतीत में घूमने लगी ...    


मई, 2012
मैं मई, 2012 में गाँव गया था.शाम का समय था.पाही पर बैठे थे.अचानक आवाज़ आयी.’अरे हमार लाल,कब आईला’.हम उठे.उनका पैर छुए.वे छाती से लगायीं और फफ़क-फफ़क कर लगीं रोने.घर के सब बच्चे घेरा बनाकर हम दोनों को देखने लगे.
कुछ देर बाद अपने हाथों से हमें लगीं सहलाने.उनके रूखे हाथों की छुअन ताजिंदगी याद रहेगी.जो ममता उनसे मिली,माँ से नहीं...जिस तरह वे मुझे पकड़ कर रोतीं,माँ कभी नहीं रोयीं.
मैं उन्हें पकड़कर चारपाई पर बैठाने लगा,वे जमीन पर बैठने लगीं.बोलीं ‘रिवाज़ मत तोड़ ललवा...’ हम उन्हें समझाए और चारपाई पर ही बैठाए.
मेरे सर पर हाथ रखकर बोलीं ‘देख बहिन (दादी की तरफ देखकर) हमारे हाथ का है...’ फिर बोलीं ‘खूब बढ़ा लाल,खूब फला-फूला’.
हमने पूछा.हमारे आने का कैसे पता चला.बोलीं ‘दुलहिया (माँ के बारे में) मिलल रहल ह..पूछली ह हमार ललवा कईसे हऊअन त बतौलिन हं,अयाल हऊअन मावा !’ फिर लगीं रोने...
जब वे जाने लगीं,अपने चचेरा भाई को खेत से सब्जी लाने के लिए इशारा किया,उन्हें रोड तक छोड़ने गया.उनकी हथेली को खोला और कुछ रखकर मुठी बांध दिया,उनकी तबियत खराब मालूम पड़ रही थी.बहुत कमजोर हो गयीं थीं...  
‘जुग-जुग ज़िया हमार लाल,खूब फला-फूला’,कहते हुए गाँव की तरफ लाठी टेगते चल दीं...और हम उन्हें जाते हुए देर तक देखते रहे...             
जानना चाहेंगे वे कौन थीं !
बाला दादी.हमारी दादी.अपनी दादी से सौ गुना अच्छी और ममतामयी.भावना जैसे उनमें समादर की लहर सी उठती...   
गाँव के रिश्ते में ‘बाला’ हमारी दादी लगती थीं.गाँव से दक्षिण टोला यानी चमराने-चमटोल में उनका घर था.वे अनपढ़,दलित थीं,लेकिन पढ़े-लिखे,उनके आगे पानी भरते थे.
वे हमें अकसर माँ से पूछा करती थीं.जब भी माँ से बात होती,माँ बोलतीं 'बाला मावा  पूछ रहीं थीं बेटा...’ पूछती क्यों नहीं.उनके हाथ मेरी पैदाइश जो हुई थी.इस गर्व को वे बांटते फिरतीं.
यह बात 1973-74 की है.यहीं हमारी पैदायशी साल है.उस समय गाँव में महिला डाक्टर नहीं होती थीं.बाला दादी,दाई के तौर पर बुलायी गयीं.
वहीँ हमारी देख-रेख करतीं.माँ की भी...फिर क्या था,जीवन भर जुड़ी रहीं.त्यौहार पर घर आना नहीं भूलतीं.पूरे अधिकार के साथ ..ले जातीं..
जब भी वे कभी मिलतीं.अपने हाथों से,हमारे पूरे शारीर का एक्सरे करतीं.      
मार्च, 2010
एक दिन माँ को फोन किया.बातचीत के दौरान ही माँ ने कहा.’बाला मावा पूछ रही थीं’,”कह रहीं थीं बचवा के बियाहे (शादी) में लुग्गा (साड़ी) पहिरब, दुलहिया...”
 हमने माँ से कहा.उनसे कहियेगा इस बार आऊंगा तो,उनसे जरुर मिलूँगा.एकाध बार हुआ,जब उनसे मुलाकात नहीं हो सकी.
माँ बोलीं ‘अब उनकी तबियत ठीक नहीं रहती,बचवा..’ हमने माँ से कहा,दादी को एक जोड़ी धोती,कुछ रुपये और अनाज दे-दें.बाकी हम आएंगे तो उनसे मिलेंगे...
एक माह बाद फिर माँ से बात हुई.हालचाल के बाद माँ ने उनके बारे में जानकारी दी.
जिस दिन माँ से हमारी बात हुई थी,उसके कुछ घंटे में बाला दादी घर पहुँच गयीं.माँ ने उन्हें हमारे बारे में बताया.जैसा हमने कहा था,माँ ने वैसा ही किया.
जैसा उनका स्वाभाव था,आशीर्वाद देते हुए उठीं और रास्ते भर ‘हमार लालवा जुड़े रहें,खूब फलें-फूलें...’
कहते हुए घर जा रहीं थीं.चमटोली की तरफ से चाची आ रही हीं थी,पूछीं ‘केकरे घरे से आवत हउ दादी,’ बोलीं “गुलबिया (माँ का नाम गुलाबी है) के घरे से...हमार लाल हमके जुड़वा देहलन...”
                    
अक्टूबर, 2010  
वैसे तो जब भी विश्वविद्यालय में छुट्टी होती,हम गाँव जाते,बाला दादी से जरुर मिलते.उनके घर जाकर.बहुत बार वे खुद ही घर आ जातीं.पूछते-पूछते.तब हम बेरोजगार थे.उनके लिए कुछ करने की स्थिति में नहीं थे.
बावजूद इसके उन्होंने,हमसे कभी कोई उम्मीद नहीं रखी,जब भी मिलीं सावन-भादों की तरह आशीर्वाद का वर्षा कीं.हमें देख जिस अपार खुशी का वे इज़हार करतीं.आजतक किसी ने नहीं की.माता-पिता ने भी नहीं की. 
अक्टूबर, 2010 में उत्तर प्रदेश ग्राम पंचायत का चुनाव था.चाचा चुनाव लड़ रहे थे.हमें भी लोग बुलाए थे.
माँ से ‘बाला दादी’ के बारे में पूछा,बोलीं ‘मावा बीमार हैं...’ हम उनके घर गये. करीब चार बजे का वक्त रहा होगा.घर से थोड़ी दूरी पर बनी मड़ई में बैठी खांस रहीं थीं.
हमने आवाज़ दी.बोलीं ‘के हव बचवा...’ हम उनके पैर छुए..उन्हें समझते देर नहीं लगी...हर्षित मन से बोलीं ‘अरे हमार लाल...कब आईला...’ उनके बगल में एक टूटी चारपाई पड़ी थी.सिरहाने फटा हुआ लेवा पड़ा था.दुबली इतनी की एक-एक हड्डियां गिनी जा सके...
हम कुछ पूछते,उससे पहले,उन्होंने बीमारी, दो बेटों के असहयोग,छोटे बेटे की सेवा के बारे में और जीवन के दर्द को बयां कीं.
डाक्टर ने उन्हें जो दवा दी थी,सब दिखायीं.पर्ची दीं.बोलीं ‘एक खांसी क सिरप अबही ना अयाल हव..छोटका के पास पैसा ना रहल आज काम पर गयल हव...’
हम उनके लिए क्या कर सकते थे,जो किये भी,उससे खुद भी संतुष्ट हुए...हम तो ताजिंदगी उन्हें,वैसे ही देखना चाहते थे,जैसी थीं... उनकी हथेली खोला,फिर मुट्ठी बांध दिया..बोला का फिर आऊंगा...     
दूसरे दिन फिर मिलने गये.’बाला दादी’ धूप में बैठी थीं.बड़ा-मझला बेटे मिलकर पक्का घर बना रहे थे.बोलीं ‘ज़माना बदल गयल लालवा,सब आपन-आपन देखत हव,माई-बाऊ....उनकी पीड़ा सुनी आँखों और झूलती चमड़ी बयां कर रही थीं...
27 नवम्बर,2012
आज करीब तीन बजे रेनू (छोटी बहन) ने फोन किया.बात की.जब उसे अहसास हुआ कि इस बार सर्दी में नहीं जाऊंगा तो अपनी ख्वाहिशों की लम्बी फेहरिश्त ‘वर्चुअल मोड’ में थमा दी.
फोन माँ को थमा दिया.माँ खूब बतियाईं...हमने पूछा गाँव के लोगों का क्या हालचाल है.बोलीं ‘सब कोई ठीक हव बचवा,’बाला मावा मर गईलीं...’ कल दसवां रहल...’ इतना सुनना था कि मैं शून्य में चला गया.
हमने माँ से पूछा इतने दिन बाद क्यों बता रहीं हैं,बोलीं ‘हमहनों के कहाँ पता चलल,उ त रेनू देखलस सड़क पर लावा गिरल रहल.फलाने बो से पूछलस त बतवनी कि चमराने क बाला मर गईलीं...बाजा भी ना बाजल कि पता चलत... अब चमटोली में उनके जईसन केहू ना हव...’
हम कुछ बोलते उसके पहले ही माँ बोलीं ‘कफ्फन भी न दे पवली मावा के...’ माँ को हम बोल रखे थे,जब भी उन्हें कोई दिक्कत हो तुरंत मदद कीजियेगा...
माँ बोलीं “बचवा,मावा कहत रहलीं जवन हमार जनमल ना कईलन,उ हमार लाल कईलन..हमार भईया हमके तार देहलन...” माँ से बोला अब रखता हूँ...
हमने ‘बाला दादी’ के लिए क्या किया,कुछ भी नहीं...क्या कर सकते थे,उनके लिए...ज़िंदा रख
सकते,तभी कुछ कर सकत थे...जो हमारे बस का नहीं था...जो बस में था,वह भी तो नहीं कर सके ...      
अंतिम वक्त कफ़न न देने की कसक ताजिंदगी रहेगी...’बाला दादी’ को गर्व था कि हमारा जन्म,उनके हाथ हुआ और मुझे उन पर फक्र था कि वे मेरे बचपन की डाक्टर थीं...
स्मृतियां जो नहीं जाएँगी....  
बचपन के दिन थे.नानी गाँव से गर्मी के सीजन में आया था.गाँव के पश्चिम में महुआ का पेड़ था.उसी के नीचे ‘बाला दादी’ ‘नरिया-थपुआ’ (गाँव में इसी से कच्चा मकान बजाये जाते रहे हैं) पाथ रहीं थीं.
ठीक-ठीक तो नहीं पता,उनकी उम्र 40-45 की रही होगी...तब हमारी उम्र 5-6 साल की रही होगी.माँ से बहुत सारी बातें कर रहीं थीं... वे कई पीढ़ी की खबर रखतीं.जब भी रोपनी लगती,’बाला दादी’ जरुर बुलायीं जातीं...
अब तो न महुआ का पेड़. रहा और न ‘बाला दादी’ रहीं.महुआ के पेड़ और बाला दादी में एक समानता थी... अब जब गाँव जाऊंगा तो उनकी स्मृतियां परछाई की तरह आगा-पीछा करेंगी.
कभी खेत में,कभी खलिहान में.कभी डहर (रास्ते) चलते.कभी नदी के किनारे.कभी मड़ई में.कभी उनके खुरदुरे हाथों से कपार और चेहरा सहलाने का अहसास...गाँव तो होगा,लेकिन ‘बाला दादी’ नहीं होंगीं...
काश ! ‘बाला दादी’ तक हमारी यह भावना पहुँच पाती.हमारे जीवन की पहली और अंतिम ‘बाला दादी’,हमारे बीच नहीं रहीं.हमारी स्मृति ही,उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है...
           

Monday 26 November 2012

अमेरिका के भोजन पर साम्राज्यवाद का भाषण


रमेश यादव 

e-mail:dryindia@gmail.com

'मेनिफेस्टो'

उनके पुरखे
सामंतवादी थे
पिता अपने समय में
घोर जातिवादी दे
देख सुनहरा अवसर
मुँह में खोता लगाये
और समाजवादी हो गये
सुना है
इन दिनों
बेटे 
जनवाद का 'मेनिफेस्टो' लिख रहे हैं 

DRY/26/11/2012/08.25/PM.

परदादा से पोते तक  

पहले
उनके दादा-परदादा
मुस्लिम शासकों की सेवा किये
जमींदार-जागीरदार बन बैठे
स्वतंत्रता आंदोलन में
उनके पिता
भारतीय जनता के साथ गद्दारी किये
धरती के मालिक बन बैठे
आज़ादी के बाद
उनके पोते 
राजसत्ता का साथ दिये
और कैबिनेट में काबिज हो गये

DRY/26/11/2012/08.45/PM.

साम्राज्यवाद  

आजकल
वे मंच ठोक-ठोक कर भाषण देते हैं
इस खूबी के बारे में
हमने उनके एक करीबी से पूछा
बोले
क्या बतायें
खाते हैं अमेरिका का
पगुरियाते हैं साम्राज्यवाद पर...

DRY/26/11/2012/08.25/PM.

Sunday 11 November 2012

‘दिया’ बनती ‘चिमनी,आँख सावन-भादो



रमेश यादव

E-mail: dryindia@gmail.com

रोशन !
विश्वविद्यालय में दाखिल होते ही
मेज,कुर्सी और टेबल लैम्प के जुगाड़ में लग गया.
गर्मी हो या बरसात
गाँव में ‘दिया’ की रोशनी में चारपाई पर पढ़ाई करता रहा
और
जाड़े में पुआल के बिस्तर पर लेवा ओढ़कर
उसके गाँव में पढ़ाई का यहीं रिवाज़ था   
उसके दादा के पीढ़ी के लोग अनपढ़ थे
इसलिए वे लोग इसी पढ़ाई को अंतर्राष्ट्रीय माडल समझते थे         
रोशन को
‘दिया’ भी नहीं मिलता
घर वालों के पास वाजिब तर्क होता
घर अधिक है,दिया कम,क्या किया जाये
कभी-कभी मिट्टी का तेल नहीं होता तो
आँगन में एक दिया जलता
उसे से बाकी घरों में रोशनी जाती
रोशन तरकीब लगाता  
किसी खाली शीशी को खोज लाता
उसके ढक्कन को छेदता
किसी फटे-पुराने कपड़े को फाड़ता
उसका बाती बनाता
मिट्टी का तेल डालता
फिर क्या
दिया बन कर तैयार
लालटेन एक ही थी
उसकी ड्यूटी बंगले को रौशन करना था
वहां गाँव के बड़े बुजुर्ग आते
उनकी बैठकी लगती ...
रोशन   
विश्वविद्यालय में दाखिल हुआ
शहर में रहने लगा
कैम्पस से बाहर
गरीब छात्रों के लिए बने छात्रावास में   
यहाँ उसे ‘दिया’ कि जगह
बल्ब की रौशनी में पढ़ना पड़ता
गाँव से चारपाई लाया था
वहीँ उसके बिस्तर-मेज का काम करती
पढ़ते-पढ़ते कब नींद आ जाती पाता ही नहीं चलता
एक दिन सोचा
यदि कुर्सी होती तो देर रात तक पढ़ता
सालों बाद एक परिचित के यहाँ मिलाने गया
उनके यहाँ नई कुर्सी आने से
पुरानी कुर्सियां बेघर हो गईं थीं  
उन्हीं में से उसे एक मिल गई
जीवन में पहली बार कुर्सी पर बैठकर पढ़ा
तब उसे मेज की जरुरत महसूस हुई
सोचा कुर्सी-मेज पर पढ़ने से
लोग अधिक चालाक होते हैं
उसके दिल-दिमाग में संघर्ष होने लगा
कि चारपाई पर सो कर पढ़ने वाले की बुद्धि सोई रहती है कुर्सी-मेज पर पढ़ने वालों की बुद्धि सजग और तेज होती है
रोशन  
जो भी पढ़ता उसे याद नहीं रहता
उसने सोचा इन सबका कारण चारपाई है
जागने के बाद भी वहीँ पढ़ना पड़ता है
जिसे पढ़ते- पढ़ते सो जाता हूँ
अंततः एक दिन वह मेज का भी इंतजाम कर लिया
अब उसने पढ़ने के लिए सप्ताह भर का समय निर्धारित किया.
समय सारिणी को मेज के ऊपर दीवाल पर ‘भात’ से चिपका दिया
एक दिन पढ़ते समय उसे खयाल आया
टेबल लैम्प होता तो किता बढ़िया होता
लैंप की रोशनी सीधे किताब पर पड़ती
आँख को भी सुकून मिलती  
अचानक उसे याद आया
कैसे कभी-कभी हलकी हवा में ‘दिया’,
‘चिमनी’ बन जाती और आँख सावन-भादो
एक दिन 150 रुपये का लैम्प खरीद लाया
मई का महीना आ गया था
गर्मी अपना असर दिखानी शुरू कर दी थी
एक दिन वह पढ़ रहा था
माथे से पसीने का बूंद टप से कापी पर गिरा
और भारत का नक्शा बन गया.
रोशन सोचा यदि पंखा होता तो ...(अधूरी)

रमेश यादव /11/11/2012/505.50/PM
    
  
  
          
   
            

Thursday 8 November 2012

इन्डियन मीडिया: अमेरिका पर मुखर,भारत पर मौन


इन्डियन मीडिया: अमेरिका पर मुखर,भारत पर मौन
रमेश यादव
E-mail: dryindia@gmail.com
8 नवंबर,2012/.नई दिल्ली.
भारतीय सन्दर्भ में देखा जाये तो प्रिंट मीडिया एक-एक शब्द-सेंटीमीटर और इलेक्ट्रानिक मीडिया एक-एक सेकेण्ड और मिनट का हिसाब लगाता-बेचता है.बावजूद इसके इन्डियन मीडिया ने अमेरिकी मामले में दिल खोलकर लाइव कवरेज दिया और पृष्ठ दर पृष्ठ प्रकाशित किया.
भारतीय मामलों पर आमतौर पर मौन व्रत रहने वाला इन्डियन मीडिया,विदेशी खासकर,अमेरिकी मामलों पर कितना मुखर हो उठता है.अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावी और जीत के बाद के कवरेज को देखकर अनुमान लगाइए.  
इस हफ्ते हमारे मुल्क में कई बड़ी घटनाएँ हुईं.इरोम शर्मीला के संघर्ष के 12 साल पूरे हुए.किसानों के पक्ष में लड़ते हुए मेधा पाटकर,साथियों सहित जेल गईं..
नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय सीबीआई और सीवीसी को संवैधानिक दर्जा दने की वकालत किये.आज के अखबारों में यह खबर सूचनात्मक है.
मारुती सुजुकी,मानेसर प्लांट ने 546 कर्मचारियों को पहले ही बर्खास्त कर चुका है.करीब 145 जेल में बंद हैं. बुधवार को गुड़गांव स्थित लघु-सचिवालय में धरना-प्रदर्शन के लिए पहुंचे कर्मचारियों में से ३२ लोगों को फिर गिरफ्तार किया गया.यह आंदोलन तक़रीबन 18 जुलाई से चला आ रहा है.
  
आब आप देखिये की जनहित से जुड़े इतने गंभीर किस्म के मामले खुद भारत में मौजूद हैं.लेकिन इस विषय पर इन्डियन मीडिया मौन व्रत रखा हुआ है.क्यों ...? क्योंकि यह समस्या भारतीय लोगों की है.इन्डियन की नहीं.
यहाँ भारतीय वे हैं जो पूरी आबादी का 75-80 फीसदी हैं और जो गाँवों में रहते हैं.बचे 20 फीसदी इन्डियन,जिनका 80 फीसदी भू-भाग के प्राकृतिक स्रोतों /संसाधनों पर एकाधिकार है.या यूँ कहिये की कब्जा है.
ऐसा नहीं है कि इन्डियन मीडिया,भारतीय समास्याओं को नहीं दिखाता,दिखता है,लेकिन उन्हीं खबरों को जिसके पीछे कुछ समूह लगे होते हैं.जिसमें कार्पोरेट समूह का फायदा होता और सत्ता से दूर,सत्ता के लिए ताक लगाये  राजनैतिक दलों को लाभ पहुंचाने वाला होता है.  
आखिर क्या कारण है कुछ लोगों कि जन्म पत्री देखने वाला इन्डियन मीडिया,रिलायंस के मामले में फालो-अप नहीं किया,क्यों ...? क्योंकि सोचिये क्यों ...?
इस देश में कौन कितना बड़ा भ्रष्ट है.किसका धन,कहाँ जमा है.कौन कितना चोरी करता है.यह बात सब जानते हैं.मीडिया संस्थान भी.लेकिन जब अरविन्द केजरीवाल खुलासा करते हैं,तब यह खबर का हिस्सा बना.फिर वहीँ मौन सन्नाटा.यह तो दूसरे के कंधे पर बंदूक चलाने वाली बात हुई.            
महीनों से इन्डियन मीडिया,भारतीयों में अमेरिकी सपने को में बेच रहा है.जाहिर है अमेरिका का सपना क्या है ...? अफ़गानिस्तान/इरान/ईराक/ दुनिया के मुसलमान..  या कोई और...   
ओबामा के जीत से व्यक्तिगत तौर पर हम खुश हैं.इसका कारण हैं.क्योंकि वहां की जनता,उस समुदाय के बीच के व्यक्ति को दोबारा राष्ट्रपति चुना जो अश्वेत है.जिसे 1960 के मध्य तक मताधिकार नहीं था.
हम इसे सामाजिक परिवर्तन के तौर पर देख रहे हैं.यह भारत में भी होना चाहिए.बावजूद इसके हम अमेरिकी साम्राज्यवादी नीति के खिलाफ हैं.. 
इन्डियन मीडिया में ओबामा को जो कवरेज मिला,उससे किसको लाभ होगा.जाहिर है,कार्पोरेट घरानों को...क्यों ? क्योंकि मीडिया संस्थानों को संचालित करने वाले अधिकतर कार्पोरेट घराने हैं.
इन्डियन मीडिया भारतीय समाज को यह समझाने में लगा हुआ है,कि विदेश कंपनियां आएँगी तो पल भर में भारत के नंगे-भूखों की दरिद्रता खत्म हो जायेगी.
एफडीआई गुब्बारा है.इससे अधिक और कुछ नहीं.