रमेश यादव
4 अक्टूबर,2012.नई दिल्ली.
चुनावी मैसम में हर तरह के जीव-जंतु सक्रिय दिखते हैं.मनी,माफिया,मीडिया और मसल्स का योगदान अहम माना जाता है.पूरा चुनाव बैलेट,बुलेट,बूथ और लूट पर टीका होता है.
चुनावी फसल को सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही नहीं काटती हैं,बल्कि इसका एक बड़ा हिस्सा मीडिया संस्थानों को भी जाता है.
इसके लिए मीडिया संस्थान,उम्मीदवारों/पार्टियों से वसूली का वाकायद 'रोड मैप' तैयार करते हैं.माफिया /ठेकेदार और बिचौलिए भी अपने-अपने मोर्चे पर लगे दिखते हैं.
'पेड न्यूज' पर भले चुनाव आयोग की नजर लगी हो,लेकिन समाचार छापने पर तो रोक नहीं है.किस नेता के सभा /रैली की खबर,कितने कालम में और किस पृष्ठ पर प्रकाशित होगी,यह सब मीडिया संस्थान तय करता है.जाहिर है,सौदा तय होने के बाद ही यह होता है.
जिस प्रत्याशी के साथ मीडिया संस्थान का अलिखित अनुबंध हो गया,उसके लिए तो खुशी का समाचार है,लेकिन जिसकी बात नहीं बनी,उसके खिलाफ खोज-खोज /खोद-खोद कर नकारात्मक खबरें प्रकाशित की जाती हैं और इसे जन सरोकार से जोड़ दिया जाता है.
चुनाव पूर्व,मीडिया संस्थानों को चुनावी समय में प्रकाशित खबरें,सामाजिक सरोकार की नहीं जान पड़ती . चुनाव के समय अचानक इनके अंदर सामाजिक सरोकार का भाव पैदा हो जाता है.इस तरह के खेल में एक,दूसरे के खिलाफ प्रतिद्वंदी उम्मीदवार भी शामिल होते हैं.
निर्दल उम्मीदवारों या फिर बागी उम्मीदवारों की स्थिति भले बेहतर हो या लड़ाई में हों,लेकिन खबरों में वे हाशिए पर ही होते हैं.
बुधवार को चुनाव आयोग ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के लिए चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा कर दी.
गत एक माह के मीडिया कवरेज को देखिये तो गुजरात को सर्वाधिक समय मिलता है या दिया जाता है.
कल दोनों राज्यों में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा को मीडिया ने खबर का हिस्सा तो बनाया,लेकिन खबरों में
हिमाचल का चुनावी खबर सूचनात्मक रहा,जबकि गुजरात प्राइम टाइम से लगायत अब तक छाया हुआ है.
वैसे देखा जाये तो जैसे गुजरात में बीजेपी के अंदर,बिखराब,तनाव और अंतर्विरोध है,ठीक वैसे ही हिमाचल में कांग्रेस में है.बावजूद इसके मीडिया का सारा फोकस गुरजात में मोदी पर है और हिमाचल के मामले पर कांग्रेस सुप्रीमों द्वारा उठाये जाने वाले कदम पर.
कम से कम राष्ट्रीय मीडिया के सक्रियता को देखने से तो यहीं लगता है कि यह मोदी मोह से ग्रसित है और कांग्रेस से चिपकी है.
मीडिया खास तौर से टीवी मीडिया में आयोजित दैनिक बहस में कांग्रेस बनाम मोदी का भूत छाया रहता है.इस विषय पर बोलने वाले अधिकतर पार्टियों के प्रवक्ता होते हैं और इन्हीं दोनों पार्टियों के दाना-पानी पर पलने वाले तथाकथित चिन्तक/विचारक का लबादा ओढ़े बुद्धिजीवी.
ये इतने कलाकार होते हैं कि पूरी बहस को कांग्रेस बनाम मोदी में बदल देते हैं.गुजरात में किसी अन्य विकल्प ये बात ही नहीं उठाने देते हैं.
कई-कई चैनलों के एंकर कभी कांग्रेस तो कभी मोदी के खिलाफ एक लफ्ज़ नहीं सुनना पसंद करते हैं.जैसे लगता है ये चैनल के एंकर कम मोदी/कांग्रेस के प्रतिनिधि अधिक जान पड़ते हैं .
मौजूदा मीडिया चुनावी समय में जनता के सवालों का एजेंडा सेट करने की जगह नेताओं /उम्मीदवारों और पार्टियों का एजेंडा सेट करने में लगा हुआ है..
सामाजिक जिम्मेवारी/जवाबदेही और प्रतिबद्धता की जगह मीडिया संस्थान विज्ञापन/व्यवसाय /कमाई और इसके लिए हर तरह के जुगाड़ में लगे हुए हैं....
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