Thursday 11 October 2012

टीवी चैनल्स: बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना



अमिताभ पर फ़िदा,आम आदमी से घृणा


रमेश यादव

12 सितम्बर,2012.नई दिल्ली.

अमुख :

जल,जंगल,जमीन और आज़ादी के मुद्दे पर सैकड़ों किलोमीटर की पद यात्रा ( जन सत्याग्रह) कर आगरा छावनी पहुंचे गरीब,दलित-आदिवासियों के जीवन संघर्ष और अत्याधुनिक सुख सुविधाओं से संपन्न अमिताभ बच्चन के जन्म दिन पर यदि आपको पटकथा लिखनी हो तो कैसे लिखेंगे ...?  

यह बताना मेरे लिए जितना मुश्किल है,उतना ही आसान भी है,अमिताभ के जन्म दिन पर टीवी मीडिया के रुख को बयां करना.यदि मीडिया के इस रूप को ‘बेगाने शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की संज्ञा दी जाये तो अतिशंयोक्ति नहीं होगी.       

सीन एक:

कल अमिताभ बच्चन 70 साल के हो गए.उनकी याद में फ़िदा टीवी चैनल्स खास तौर पर ‘न्यूज 24’,70 कहानियां और 70 तस्वीरें पेश की.   

अमिताभ के लिए मीडिया के शब्द चयन पर गौर कीजिये- महा नायक/महा जन्म दिन/महा जश्न/सदी का सबसे बड़ा जश्न...

अति तो तब हो गयी जब एक एंकर ने एक गायक के लिए सुरों का सिपाही...     (सिपाही ! वह भी सुरों का वाह! ) सरीखे ‘शब्द’ का प्रयोग किया.  

अंबानी से लेकर खब्बानी तक उनके जन्म दिन की तैयारी में लगे थे.मेहमानों में ‘मंत्री’ से लगायत ‘संत्री’ तक शरीक हुए...

चैनल,अमिताभ के चमकते चेहरे/ड्रेस/चाल/मुस्कान/ पसंद/केक की साइज तक का लाइव कमेंट्री किया.

पार्टी में शामिल लोगों के चेहरों पर कैमरे का फ्लैश इस कदर चमक रहे थे, मानो लपलपाती बिजली कौंध रही हो.

अमिताभ के अतीत और वर्तमान को रंग-बिरंगे साज-अंदाज़ साथ ही पत्नी,बेटे-बहू,बेटी और नतिनी को अलग-अलग पोज के आकर्षक/मारक संवाद के सहारे दिखाया गया.

हरिवंश राय बच्चन के मधुशाला,हाला,प्याला से लगायत ‘अमर सिंह का ठाला’ तक का जिक्र हुआ.

मीडिया की माने तो कल पूरा देश ‘केक’ काट रहा था और मीडिया द्वारा घोषित सदी का महा जश्न था.     

सीन दो :

झुरियाये/ खुरदुरे चेहरों.पैरों में फटी बेवायियों.फटे-पुराने कपड़े और नंगे पाँव सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा (जन सत्याग्रह) में शामिल लोगों को यदि चैनल्स दिखाते तो शायद दर्शकों को उलटी-दस्त शुरू हो जाती और चैनल्स की टी.आर. पी. गिर जाती.

इसलिए टीवी चैनल्स ने अद्भुत विवेक का प्रदर्शन किया.हजारों गरीब,दलित-आदिवासियों को दिखाने की बजाय अमिताभ बच्चन को चुना.

जाहिर है,सर्वाधिक उत्पादों का विज्ञापन अमिताभ करते हैं.बाजार विज्ञापनों के सहारे फलफूल रहा है.विज्ञापन उसी को मिलेगा,जिसकी टी.आर.पी. अधिक होगी. टी.आर.पी. अमिताभ से बढ़ेगी,आदिवासियों से नहीं (?).चैनल इस बात को बखूबी जानते हैं.        

अमिताभ पर फ़िदा टीवी चैनल्स का गरीब,दलित-आदिवासियों के प्रति घृणा भाव इस बात का गवाह है कि मीडिया आम आदमी का नहीं,खास का भोपू है.

एकता परिषद के झंडे तले लामबंद मजलूमों का यह हुजूम भारत के अलग-अलग राज्यों से एकत्र हुआ और 3 अक्टूबर को ग्वालियर से दिल्ली के लिए रवाना हुआ.
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री एंड कंपनी ने भले आगरा के छावनी क्षेत्र में 

भूमिहीन,गरीब,दलित-आदिवासियों को सरकारी दांव के जरिये बहलाने-फुसलाने के समझौता करने में सफल रहे हों.

लेकिन सरकार के मात्र इस कदम से आदिवासियों का उनका प्राकृतिक अधिकार और आजादी नहीं मिल जाती.मीडिया के लिए यह तब भी जलता हुआ सवाल है आज भी है और कल भी रहेगा.       

इन जैसों हजारों/लाखों/करोड़ों लोगों का जीवन,जंगल पर आश्रित है.बावजूद इसके किस वैकल्पिक व्यवस्था किये वगैर उन्हें उजाड़ा जा रहा है

भारत में ‘मनमोहनी आर्थिक विकास’ का विस्तार जंगल और जंगलवासियों को निरंतर उजाड़ रहा है और बनियों/व्यापारियों/ठेकेदारों/गुंडों और पूंजीपतियों को बसा रहा है.इन्हें भरपूर सरकारों का संरक्षण प्राप्त है.

सभ्यता के विकास से लेकर अब तक जंगल के असली हक़दार वहीँ हैं,जिन्होंने जंगल की हिफाज़त की है,उसे सींचा है.

सवाल तो उठेगा ही कि अभियक्ति की आज़ादी.लोकतंत्र.सामाजिक जवाबदेही,जिम्मेवारी और प्रतिबद्धता का लबादा ओढ़े मीडिया किसके लिए काम कर रहा है.अमिताभ के लिए या फिर आम आदमी के लिए.

ऐसा नहीं है की मीडिया ने ‘जन सत्याग्रह’ को कवरेज नहीं दिया.अमिताभ बच्चन की तुलना में यह कवरेज नहीं के बराबर था.यह हकीकत है.

सीन तीन :  

इस देश में एक अत्याधुनिक सुविधा सम्पन एक आदमी,करोड़ों विपन्न आदमियों की तुलना में महत्वपूर्ण हो जाता है,वह भी मीडिया के लिए.जिसके हिस्से में सामाजिक जवाबदेही का उद्देश्य और संकल्प शामिल है.   

यह अजूबा/अनोखा प्रयोग भारत में ही हो सकता है और सदियों से किया जा रहा है.
लोग पूछ रहे हैं कि जब संविधान में सभी को समान अधिकार और अवसर देने का प्रावधान है,बावजूद इसके लोग क्यों निरंतर अलग-अलग मुद्दे और क्षेत्रों में संघर्षरत हैं...?

जब भारत,दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का तमगा लिए फिर रहा है फिर यहाँ प्रभावी लोकतंत्र के बावजूद दूसरे लोकतंत्र के लिए लोग संघर्षरत क्यों हैं...?
यह तब तक जारी रहेगा जब तक मीडिया आम आदमी के दर्द/पीड़ा को मंच देने की बजाय सुविधा संपन्न बनियों /व्यापारियों /पूंजीपतियों और बाज़ार के लिए बिचौलिए का काम करता रहेगा.   

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सार्थक मुद्दा उठाया है आपने …. कल जे पी को कितने लोगों ने याद किया होगा …. मीडिया भी पूँजीपतियों के लिए ही काम करता है …. अभी आपकी लिखी कविता भी पढ़ी ॥कवि से बचाओ … यथार्थ को कहती बहुत अच्छी प्रस्तुति है …. आभार

kuldeep thakur said...

सत्य लिखा है... बड़े लोगों की बड़ी बाते... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com

vijai Rajbali Mathur said...

सामयिक सार्थक विचार।

Poonam Matia said...

सच को आइना दिखाता सार्थक आलेख