Saturday 27 October 2012

बाबा की बबाई,समय से सगाई

बाबा !
व्यवहार में उदारवादी हैं/विचार से सामंतवादी हैं 
लगता है समाजवादी हैं/मगर पक्का जातिवादी हैं 
समय चाहे जैसा हो/घोषणा करते साम्यवादी हैं 
नज़र से शिकारवादी हैं /ज़िगर पूंजीवादी है 
मन साम्राज्यवादी है/कहते जनवादी हैं
जीवन सुखवादी है/कहते संघर्षवादी हैं
सोच भोगवादी है/कहते लोकवादी हैं
लिखते क्रांतिकारी हैं/बोलते जुगाड़वादी हैं
सक्रिय अवसरवादी हैं/कहते सर्वहारावादी हैं
चाल सरकारवादी है/ढाल मनुवादी है
अपन भी कहाँ फंसे,समाज परिवर्तनवादी है (विस्तार संभव)

रमेश /28/10/2012/09.53./AM.








बाबा !

बुद्धिमान बुद्धिजीवी हैं
हमेशा भाप की तरह भभकते हैं
जुगाड़ू इतने की सभी
माध्यमों के मंच पर सक्रिय दिखते हैं
जब भी मुँह खोलते हैं
साम्राज्यवाद का विरोध करते हैं
लोगों को लगता है
बाबा
राष्ट्रवादी क्रांतिकारी हैं
मगर असली जीवन में
बाबा अंतरराष्ट्रीय भोगवादी हैं
सरकारी नीतियों का करते हैं विरोध
और सुविधाओं का लगाते हैं भोग ...(विस्तार संभव)

रमेश /28/10/2012/09.10/AM.

Tuesday 23 October 2012

फ़रिश्ते की तरह चाँद का काफ़िला न रोका करो

फ़रिश्ते की तरह चाँद का काफ़िला न रोका करो 


चाँद

चाँद हो 
चाँद की तरह दिखा करो 
बादलों में यूँ ही न छिपा करो 
हम दीवाने हैं 
तुम्हारी शीतल अदाओं के 
यूँ ही बादलों में न विचरण किया करो 
लिहाज़ हमारी मोहब्बत का भी किया करो 
यूँ ही बादलों में न छिपा करो
हम भूखे हैं कब से
तुम्हारे उजाले का 
छुपकर बादलों में
यूँ ही न अँधेरा फैलाया करो
कभी हमारे ख़्वाब को भी पूरा किया करो
हटाकर खिड़की का पर्दा
झांक रहा हूँ कब से
दीदार के लिए
चिर कर बादलों के सीने को
सीधे 'बेडरूम' में उतर आया करो
तुम्हारे उजाले पर निर्भर है
हमारा तापमान
आकार बाँहों में यूँ ही सिमट जाया करो
छुपकर बादलों में
हमें न डराया करो ... (अधूरी)

रमेश यादव /23/10/2012/6.55.pm.



आंधी और बचपन 

आज अचानक
आंधी आयी,
आकाशीय बिजली चमकी 
बिजली गुल हो गयी 
फिर क्या था 
बारिश हुई 
तापमान ने सिहरन पैदा की
सोच रहा हूँ
काश 
बचपन होता 
नंगा युग के दोस्तों साथ
घर के पिछवाड़े
वहीँ खेल फिर खेलते...

रमेश यादव/ 23/10/2012/05.29.pm


फरिश्ता

फरिश्ता बन 
यूँ ही न फिराकर 
तुम्हारे फरेबी का राज़ जगजाहिर है
छुपाकर अपने चेहरे को 
तिरंगे में 
मुल्क को यूँ ही न ठगाकर 
हमें दुपट्टे/आंचल और तिरंगे का रंग मालूम है 
हमसे रंगों से यूँ ही न 
खेला कर 
देखें हैं हमने बहुत 
तुम्हारे जैसे राष्ट्र भक्त
लगाकर 'भबूत' माथे 'राष्ट्र भक्ति' का
यूँ ही न भरमाया कर (अधूरी)

रमेश यादव/ 23/10/2012/10.21/AM.


काफ़िला 

एक उम्र गुजर गयी,हवाओं में बात होते-होते
कभी आमने-सामने भी मिला करो 
काफ़ी के टेबल पर बात हो 
सिलसिला ही सही,काफिला तो बढ़े ... (अधूरी) 

रमेश यादव /22/10/2012/09.40

Thursday 11 October 2012

टीवी चैनल्स: बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना



अमिताभ पर फ़िदा,आम आदमी से घृणा


रमेश यादव

12 सितम्बर,2012.नई दिल्ली.

अमुख :

जल,जंगल,जमीन और आज़ादी के मुद्दे पर सैकड़ों किलोमीटर की पद यात्रा ( जन सत्याग्रह) कर आगरा छावनी पहुंचे गरीब,दलित-आदिवासियों के जीवन संघर्ष और अत्याधुनिक सुख सुविधाओं से संपन्न अमिताभ बच्चन के जन्म दिन पर यदि आपको पटकथा लिखनी हो तो कैसे लिखेंगे ...?  

यह बताना मेरे लिए जितना मुश्किल है,उतना ही आसान भी है,अमिताभ के जन्म दिन पर टीवी मीडिया के रुख को बयां करना.यदि मीडिया के इस रूप को ‘बेगाने शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की संज्ञा दी जाये तो अतिशंयोक्ति नहीं होगी.       

सीन एक:

कल अमिताभ बच्चन 70 साल के हो गए.उनकी याद में फ़िदा टीवी चैनल्स खास तौर पर ‘न्यूज 24’,70 कहानियां और 70 तस्वीरें पेश की.   

अमिताभ के लिए मीडिया के शब्द चयन पर गौर कीजिये- महा नायक/महा जन्म दिन/महा जश्न/सदी का सबसे बड़ा जश्न...

अति तो तब हो गयी जब एक एंकर ने एक गायक के लिए सुरों का सिपाही...     (सिपाही ! वह भी सुरों का वाह! ) सरीखे ‘शब्द’ का प्रयोग किया.  

अंबानी से लेकर खब्बानी तक उनके जन्म दिन की तैयारी में लगे थे.मेहमानों में ‘मंत्री’ से लगायत ‘संत्री’ तक शरीक हुए...

चैनल,अमिताभ के चमकते चेहरे/ड्रेस/चाल/मुस्कान/ पसंद/केक की साइज तक का लाइव कमेंट्री किया.

पार्टी में शामिल लोगों के चेहरों पर कैमरे का फ्लैश इस कदर चमक रहे थे, मानो लपलपाती बिजली कौंध रही हो.

अमिताभ के अतीत और वर्तमान को रंग-बिरंगे साज-अंदाज़ साथ ही पत्नी,बेटे-बहू,बेटी और नतिनी को अलग-अलग पोज के आकर्षक/मारक संवाद के सहारे दिखाया गया.

हरिवंश राय बच्चन के मधुशाला,हाला,प्याला से लगायत ‘अमर सिंह का ठाला’ तक का जिक्र हुआ.

मीडिया की माने तो कल पूरा देश ‘केक’ काट रहा था और मीडिया द्वारा घोषित सदी का महा जश्न था.     

सीन दो :

झुरियाये/ खुरदुरे चेहरों.पैरों में फटी बेवायियों.फटे-पुराने कपड़े और नंगे पाँव सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा (जन सत्याग्रह) में शामिल लोगों को यदि चैनल्स दिखाते तो शायद दर्शकों को उलटी-दस्त शुरू हो जाती और चैनल्स की टी.आर. पी. गिर जाती.

इसलिए टीवी चैनल्स ने अद्भुत विवेक का प्रदर्शन किया.हजारों गरीब,दलित-आदिवासियों को दिखाने की बजाय अमिताभ बच्चन को चुना.

जाहिर है,सर्वाधिक उत्पादों का विज्ञापन अमिताभ करते हैं.बाजार विज्ञापनों के सहारे फलफूल रहा है.विज्ञापन उसी को मिलेगा,जिसकी टी.आर.पी. अधिक होगी. टी.आर.पी. अमिताभ से बढ़ेगी,आदिवासियों से नहीं (?).चैनल इस बात को बखूबी जानते हैं.        

अमिताभ पर फ़िदा टीवी चैनल्स का गरीब,दलित-आदिवासियों के प्रति घृणा भाव इस बात का गवाह है कि मीडिया आम आदमी का नहीं,खास का भोपू है.

एकता परिषद के झंडे तले लामबंद मजलूमों का यह हुजूम भारत के अलग-अलग राज्यों से एकत्र हुआ और 3 अक्टूबर को ग्वालियर से दिल्ली के लिए रवाना हुआ.
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री एंड कंपनी ने भले आगरा के छावनी क्षेत्र में 

भूमिहीन,गरीब,दलित-आदिवासियों को सरकारी दांव के जरिये बहलाने-फुसलाने के समझौता करने में सफल रहे हों.

लेकिन सरकार के मात्र इस कदम से आदिवासियों का उनका प्राकृतिक अधिकार और आजादी नहीं मिल जाती.मीडिया के लिए यह तब भी जलता हुआ सवाल है आज भी है और कल भी रहेगा.       

इन जैसों हजारों/लाखों/करोड़ों लोगों का जीवन,जंगल पर आश्रित है.बावजूद इसके किस वैकल्पिक व्यवस्था किये वगैर उन्हें उजाड़ा जा रहा है

भारत में ‘मनमोहनी आर्थिक विकास’ का विस्तार जंगल और जंगलवासियों को निरंतर उजाड़ रहा है और बनियों/व्यापारियों/ठेकेदारों/गुंडों और पूंजीपतियों को बसा रहा है.इन्हें भरपूर सरकारों का संरक्षण प्राप्त है.

सभ्यता के विकास से लेकर अब तक जंगल के असली हक़दार वहीँ हैं,जिन्होंने जंगल की हिफाज़त की है,उसे सींचा है.

सवाल तो उठेगा ही कि अभियक्ति की आज़ादी.लोकतंत्र.सामाजिक जवाबदेही,जिम्मेवारी और प्रतिबद्धता का लबादा ओढ़े मीडिया किसके लिए काम कर रहा है.अमिताभ के लिए या फिर आम आदमी के लिए.

ऐसा नहीं है की मीडिया ने ‘जन सत्याग्रह’ को कवरेज नहीं दिया.अमिताभ बच्चन की तुलना में यह कवरेज नहीं के बराबर था.यह हकीकत है.

सीन तीन :  

इस देश में एक अत्याधुनिक सुविधा सम्पन एक आदमी,करोड़ों विपन्न आदमियों की तुलना में महत्वपूर्ण हो जाता है,वह भी मीडिया के लिए.जिसके हिस्से में सामाजिक जवाबदेही का उद्देश्य और संकल्प शामिल है.   

यह अजूबा/अनोखा प्रयोग भारत में ही हो सकता है और सदियों से किया जा रहा है.
लोग पूछ रहे हैं कि जब संविधान में सभी को समान अधिकार और अवसर देने का प्रावधान है,बावजूद इसके लोग क्यों निरंतर अलग-अलग मुद्दे और क्षेत्रों में संघर्षरत हैं...?

जब भारत,दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का तमगा लिए फिर रहा है फिर यहाँ प्रभावी लोकतंत्र के बावजूद दूसरे लोकतंत्र के लिए लोग संघर्षरत क्यों हैं...?
यह तब तक जारी रहेगा जब तक मीडिया आम आदमी के दर्द/पीड़ा को मंच देने की बजाय सुविधा संपन्न बनियों /व्यापारियों /पूंजीपतियों और बाज़ार के लिए बिचौलिए का काम करता रहेगा.   

Tuesday 9 October 2012

मलाला युसुफ़जई के हौसले को सलाम !


रमेश यादव 

मलाला युसुफ़जई ! 
घूटने मत टेकना उनकी बंदूकों के आगे 
डटकर करना मुकाबला  
कठमुल्लों/कट्टरपंथी तालिबानियों का
उनकी मिसाइलें भी खामोश हो जाएँगी
कम पड़ जाएँगी गोलियाँ  
तुम्हारे फौलादी इरादों के आगे
झुकना ही होगा
उन्हें एक दिन
तुम्हारे मिशन के सामने
कामयाब होगा तुम्हारा सपना    
जारी रखना अपने हौसलों की उड़ान 
तुम्हारे पाक इरादे
दर्ज़ होंगे
दुनिया के इतिहास में
जनेंगीं 'माएं'
हजारों 'मलाला'
फक्र करेंगी तुम्हारे बहादुरी पर
हार मत मानना 
तुम्हारे पीछे कतार लगाये खड़ी हैं 
उम्मीद भरी करोड़ो नज़रें   
अपनी बेहतरी सपना लिए 
तुम बनना 
उनकी मुक्ति 
का अगुआ ...

09/10/2012
नोट : पाकिस्तानी की 14 वर्षीय किशोरी मलाला युसुफजई को देश के उत्तर-पश्चिम में स्वात घाटी में तालिबानियों प्राणघातक हमला किया है.वो घायल है.
मलाला पहली बार साल वर्ष 2009 में सुर्खियों आईं जब 11 साल की उम्र में उन्होंने तालेबान के साये में ज़िंदगी के बारे में बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखना शुरु किया. इसके लिए उन्हें वर्ष 2011 में बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था.

Monday 8 October 2012

कवि से बचाओ !

कवि से बचाओ !



एक दिन 
आम आदमी 
चिल्लाया
कहा 
हमें कवि से बचाओ ...!

हमने आश्चर्य से पूछा
क्या हुआ ? 
कवि से कैसा ख़तरा 
आम आदमी ने कहा
तुम भी कवि हो क्या ...? 
हमने कहा,नहीं..
मैं पाठक हूँ ...
फिर
उसकी आवाज़ आयी   

हमें पढ़ो !
कवि की कविता में 
कवि की भावना में  
हमारी अभिव्यक्ति  
दर्द,पीड़ा और कसक की 

मैं कवि का 
कच्चा माल हूँ 
हमारे ही संवेदनाओं और संभावनाओं को 
देता है वह आकार 
पकाता,गढ़ता और रचता है 
शिल्प का संसार 

हमारे ही जीवन संघर्ष को 
बनाता है 
'शब्दों' का संग्रह  

ले जाता है 
वैश्विक बाज़ार में 
जहाँ सजी होती है 
कविता की मंडी 
 
हमारे दुखों पर चढ़ाकर  
रस,छंद,अलंकार,मुहावरा,लक्षणा-व्यंजना और लोकोक्तियों की परत 
 
जहाँ मिलते हैं 
रंग-बिरंगे मुखौटा लगाये  
समीक्षक/आलोचक और खरीदार
दुकान लगाये पुरस्कारों की  

बिचौलिए संचालित करते हैं 
ढ़ों और मठों को 
क्षेत्र,जाति,धर्म और संप्रदाय का टोपी पहने 

कवि 
जीतने में कामयाब होता है 
'कविता' का पुरस्कार 
देखते-देखते 
भर जाती है,उनकी झोली 
रुपयों,पदों,सम्मानों और अवसरों से 

हमारे भविष्य के चिन्तक 
बना लेते हैं 
अपने भविष्य की उज्जवल ईमारत 
हम बन जाते हैं,उनकी नींव 
 
हम जहाँ थे,सदियों पहले
आज भी पड़े हुए हैं,वहीँ पर   

हम ठहरे 
अनपढ़/गंवार 
पढ़ते नहीं हैं हम कविता 
हम तो जीते हैं 
कविता में उद्घाटित जीवन को   

कविता में मौजूद है 
हमारे जीवन संघर्ष का अंश है
हमारे जड़ों तक नहीं पहुंचा है 
कोई कवि 
वह कल्पनाओं से खेलता और रचता है  
हम जीते हैं यथार्थ को...     

21 वीं सदी में भी हम 
किसी का 'होरी' 
और  
'झुनिया' हैं   

आम आदमी चिल्लाया... 
हमें बचाओ... 

शब्दों के इन जादूगरों 
हमारे दर्दों के सौदागरों और भावना के बिचौलियों से

हम खुद लड़ेंगे 
अपनी मुक्ति की लड़ाई 
सुबह होने तक ...  

रमेश यादव /09/10/2012/ नई दिल्ली.  

Sunday 7 October 2012

एक गैर कवि की कवितई


रमेश यादव 




छुटपन के दिन 

तुम्हें याद है 
वह दिन छुटपन की
जब हम चाँदनी रातों में 
बनियों के खेतों से चोथ लाते थे धनिया 
पीसते थे चटनी   
खाते थे 
मांड-भात के साथ 
पकड़ लिए गए जब कभी 
चोथते हुए,धनिया/लहसुन,तरकारी 
और तोड़ ते हुए आम-अमरूद   
कान पकड़ कर धमकाया था हमें,उस बनिए ने 
क्या था हमारे पास भात के सिवा ?
उनके पास तो सब कुछ था 
खेत,खलिहान,घर,बंगला,बागीचे,बैंक,बैलेंस
दुनिया की सारी सुख सुविधाओं 
पर उन्हीं का तो कब्ज़ा था, है,रहेगा...
07/10/2012

अपना भविष्य 

तुम 
तय नहीं कर सकते हमारा भविष्य          
तिकड़म/गणित और जुगाड़ से
देकर कृपा फल का लालच 
चूसोगे मुझे जीवन भर 
अहसान का बोझ बनकर.
मैं खुद सवारुंगा 
अपना भविष्य 
संघर्षों का पाठ पढ़कर
काँटों भरे पथ पर चलकर.
मुझे नहीं चाहिए  
तुम्हारे पैरवी के बुलबुले 
चाहूँगा सदैव वह प्रगति  
मिटा न सके कोई 
हमारे समय के शिलापट्ट की तारीख.
 
07/10/2012

Thursday 4 October 2012

आर्थिक सुधार के नाम पर साम्राज्यवादी लूट की खुली छूट




रमेश यादव
4 अक्टूबर,2012,नई दिल्ली.

आज केंद्रीय कैबिनेट ने बीमा क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश को 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने के लिए मंजूरी दे दी.साथ में पेंशन के क्षेत्र में भी 49 फीसदी विदेशी पूँजी निवेश की स्वीकृति मिली है.

अब पेंशन के पैसे को सरकार स्टॉक मार्केट में लगायेगी या लगाने के लिए इज़ाज़त देगी.पैसे का जीवन बाज़ार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करेगा.हालाँकि उक्त बिल को अभी संसद में पेश किया जायेगा.

मौजूदा समय में सर्वाधिक रोजगार निजी क्षेत्र में है.इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग,जो भी बचत करते हैं,उन्हें पीपीएफ या बैंक बचत का सहयोग लेना पड़ता है.

माना जा रहा है कि बीमा और पेंशन संशोधन बिल पास होने के बाद इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय कंपनियां आयेंगी.लोक लुभावन पूँजी लगाएंगी.प्रतिस्पर्धा बढ़ेगा.बचत के लिए लोगों को अधिक विकल्प मिलेगा.

अब तक की स्थिति देखें तो सरकार बीमा कंपनियों को जनहित में नियंत्रित करने में असफल रही है.सरकार कंपनियों के व्यावसायिक हित को पहले प्राथमिकता देती है.

चिंतनीय बिंदु एक : किंगफिशर एयर लाइन्स की एक महिला कर्मचारी ने आज ख़ुदकुशी कर ली,सुसाइड नोट में आरोप लगाई है कि कंपनी ने गत चार माह से वेतन नहीं दिया.आर्थिक संकट की वजह से उसे यह कदम उठानी पड़ी.इस तरह के मामलों में सरकार कोई सार्थक कदम नहीं उठाती है.यह सभी लोग जानते हैं.
   
दो : भारतीय निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वालों का भविष्य कितना सुरक्षित है.क्या उन्हें सभी श्रम कानूनों का लाभ मिलता है ? जवाब होगा नहीं.इन कंपनियों में 8 घंटे की जगह 12 -14 घंटे काम लिया जाता है.

तीन: निजी कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारी,कंपनियों के शोषण के खिलाफ आवाज़ तक नहीं उठा सकते.

चार: मारुती सुजुकी ने अभी हाल ही में रातोंरात लगभग 500 कर्मचारियों को निकाल बहार किया,अब तक सरकार ने क्या कदम उठाया ? उनके हितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी है ? उनका परिवार किस हालत में है,उनकी रोजी-रोटी कैसे चल रही.इसकी चिंता कौन करेगा...?यह तमाम सवाल ज्वाल सरीखे लौ दे रहे हैं.इनकी लपटें किन-किन लोगों तक पहुँच रही हैं.            

तर्क : कुछ समय के लिए मान भी लें की बीमा और पेंशन में विदेशी निवेश फायदेमंद होगा.सवाल उठता है कि इस देश में कितने लोग हैं, जो बीमा करते हैं और पेंशन के पात्र हैं.करीब 80 करोड़ लोग करीब 20 रुपये रोजाना पर जीवन यापन कर रहे हैं,उन्हें एफडीआई का क्या लाभ मिलेगा...?
   
मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश :  

अभी हाल ही में भारत सरकार ने मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश को मंजूरी दी है. इसके साथ ही नागरिक उड्डयन क्षेत्र में भी 49 फीसदी विदेशी पूँजी निवेश को स्वीकृति दी.

देशी चोरों को नियंत्रित करने की जगह सरकार ने अंतरराष्ट्रीय डकैतों को लूटने के लिए भारत का ५१ फीसदी दरवाजा खोल दिया है.
  
उपरोक्त तथ्यों से पता चलता है कि सरकार आम आदामी के लिए नहीं देशी-विदेश पूंजीपतियों /कंपनियों को फायदा पहुँचाने के लिए खतरनाक आर्थिक कदम उठा रही है.

यह सरकार साम्राज्यवादी लूट के लिए भारतीय बाज़ार को खोल रही है,जिसमें आम आदमी को बिकने और मरने के अलाव कोई और विकल्प नहीं होगा...



 

Wednesday 3 October 2012

चुनावी फसल काटने में लगा मीडिया



रमेश यादव 
4 अक्टूबर,2012.नई दिल्ली.

चुनावी मैसम में हर तरह के जीव-जंतु सक्रिय दिखते हैं.मनी,माफिया,मीडिया और मसल्स का योगदान अहम माना जाता है.पूरा चुनाव बैलेट,बुलेट,बूथ और लूट पर टीका होता है.  

चुनावी फसल को सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही नहीं काटती हैं,बल्कि इसका एक बड़ा हिस्सा मीडिया संस्थानों को भी जाता है.

इसके लिए मीडिया संस्थान,उम्मीदवारों/पार्टियों से वसूली का वाकायद 'रोड मैप' तैयार करते हैं.माफिया /ठेकेदार और बिचौलिए भी अपने-अपने मोर्चे पर लगे दिखते हैं.  

'पेड न्यूज' पर भले चुनाव आयोग की नजर लगी हो,लेकिन समाचार छापने पर तो रोक नहीं है.किस नेता के सभा /रैली की खबर,कितने कालम में और किस पृष्ठ पर प्रकाशित होगी,यह सब मीडिया संस्थान तय करता है.जाहिर है,सौदा तय होने के बाद ही यह होता है. 

जिस प्रत्याशी के साथ मीडिया संस्थान का अलिखित अनुबंध हो गया,उसके लिए तो खुशी का समाचार है,लेकिन जिसकी बात नहीं बनी,उसके खिलाफ खोज-खोज /खोद-खोद कर नकारात्मक खबरें प्रकाशित की जाती हैं और इसे जन सरोकार से जोड़ दिया जाता है.

चुनाव पूर्व,मीडिया संस्थानों को चुनावी समय में प्रकाशित खबरें,सामाजिक सरोकार की नहीं जान पड़ती . चुनाव के समय अचानक इनके अंदर सामाजिक सरोकार का भाव पैदा हो जाता है.इस तरह के खेल में एक,दूसरे के खिलाफ प्रतिद्वंदी उम्मीदवार भी शामिल होते हैं.            

निर्दल उम्मीदवारों या फिर बागी उम्मीदवारों की स्थिति भले बेहतर हो या लड़ाई में हों,लेकिन खबरों में वे हाशिए पर ही होते हैं.

बुधवार को चुनाव आयोग ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के लिए चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा कर दी.
गत एक माह के मीडिया कवरेज को देखिये तो गुजरात को सर्वाधिक समय मिलता है या दिया जाता है.

कल दोनों राज्यों में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा को मीडिया ने खबर का हिस्सा तो बनाया,लेकिन खबरों में 
हिमाचल का चुनावी खबर सूचनात्मक रहा,जबकि गुजरात प्राइम टाइम से लगायत अब तक छाया हुआ है. 

वैसे देखा जाये तो जैसे गुजरात में बीजेपी के अंदर,बिखराब,तनाव और अंतर्विरोध है,ठीक वैसे ही हिमाचल में कांग्रेस में है.बावजूद इसके मीडिया का सारा फोकस गुरजात में मोदी पर है और हिमाचल के मामले पर कांग्रेस सुप्रीमों द्वारा उठाये जाने वाले कदम पर.

कम से कम राष्ट्रीय मीडिया के सक्रियता को देखने से तो यहीं लगता है कि यह मोदी मोह से ग्रसित है और कांग्रेस से चिपकी है.

मीडिया खास तौर से टीवी मीडिया में आयोजित दैनिक बहस में कांग्रेस बनाम मोदी का भूत छाया रहता है.इस विषय पर बोलने वाले अधिकतर पार्टियों के प्रवक्ता होते हैं और इन्हीं दोनों पार्टियों के दाना-पानी पर पलने वाले तथाकथित चिन्तक/विचारक का लबादा ओढ़े बुद्धिजीवी.

ये इतने कलाकार होते हैं कि पूरी बहस को कांग्रेस बनाम मोदी में बदल देते हैं.गुजरात में किसी अन्य विकल्प ये बात ही नहीं उठाने देते हैं.

कई-कई चैनलों के एंकर कभी कांग्रेस तो कभी मोदी के खिलाफ एक लफ्ज़ नहीं सुनना पसंद करते हैं.जैसे लगता है ये चैनल के एंकर कम मोदी/कांग्रेस के प्रतिनिधि अधिक जान पड़ते हैं .

मौजूदा मीडिया चुनावी समय में जनता के सवालों का एजेंडा सेट करने की जगह नेताओं /उम्मीदवारों और पार्टियों का एजेंडा सेट करने में लगा हुआ है..

सामाजिक जिम्मेवारी/जवाबदेही और प्रतिबद्धता की जगह मीडिया संस्थान विज्ञापन/व्यवसाय /कमाई और इसके लिए हर तरह के जुगाड़ में लगे हुए हैं....