Friday 13 July 2012


 प्रस्तुत लेख 'विकास और मुद्दे' पुस्तक में प्रकाशित है,जिसका लोकार्पण 28 जून,2012 को टीएमयु,मुरादाबाद में हुआ.यहाँ टुकड़े-टुकड़े  में प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि लोगों को पढ़ने में सुविधा रहे.सम्पूर्ण विवरण लेख के अंत में दिया जायेगा.  
    
खूंखार पूंजी से लथपथ मुख्यधारा के 
मीडिया का विकल्प बनता सोशल मीडिया
 
रमेश यादव

सूचना और प्रसारण मंत्रालय इस साल के फरवरी तक 825 चैनलों को लाइसेंस दिया है.इस समय 681 चैनल्स प्रसारित हो रहे हैं.फ़िलहाल देश में करीब 430 न्यूज और करंट अफेयर्स चैनलों को प्रसारण की अनुमति दी गई है.देश और प्रदेश के स्तर से हजारों समाचार-पत्र और सकड़ों पत्रिकाएं पंजीकृत हैं और सैकड़ों प्रकाशित हो रही हैं.इसके आलावा सरकारी नियंत्रण वाला दूरदर्शन और आकाशवाणी है,जो देश के सर्वाधिक भू-भाग तक पहुँच का दावा करता है.

अब सवाल उठता है कि इतने बड़े मीडिया समूहों के संजाल के बावजूद क्या वजह है कि देश की अस्सी फीसदी जनता इस सूचना संसार से बहिस्कृत है ? और पूरी की पूरी सूचना व्यवस्था बीस फीसदी लोगों के इर्दगिर्द मंडरा रही है. 
मौजूदा मीडिया के पूरे तस्वीर को देखिये तो लगता है,इसके परिधि में महानगर है.शहर है.बालीवुड-हालीवुड है और इसका सपनीला संसार है.मनोरंजन है.फैशन है.पूंजी के सौदागर हैं. राजनीति है.लोकतंत्र है और इसके रहनुमा हैं.एकदम कड़ी भेष में लकदक.खाए-पिएऔर अघाये लोगों का डकार लेता पूरा का पूरा सुखमय जीवन संसार है.पूरा मीडिया इन्हीं के गणेश परिक्रमा पट टीका है और इन्हीं से संजीवनी लेकर जिंदा है.  

इस मीडिया में नहीं दिखता तो बस- उजड़ता हुआ गाँव,धरती को चीरता किसान,भूख से रिरियाती हथेली.खेतिहर-मजदूर,श्रमिक,  आत्महत्या करता किसान.दवा के आभाव में दम तोड़ता आम आदमी.बेरोजगारी से जूझता नौजवान.अपने ही घर और समाज में शोषित होती स्त्री की आवाज़.कुपोषण के शिकार बच्चे.नष्ट और खत्म होते खेत-खलिहान.
बेहतर शिक्षा,रोजगार और स्वस्थ्य की उम्मीद में आस लगाये अवाम. आर्थिक आत्मनिर्भरता,सामाजिक बराबरी,राजनैतिक अधिकार और साहित्यिक-सांस्कृतिक समानता के लिए संघर्षरत जनता.जरा सोचिये! आखिर ये ही तो भारतीय समाज व्यवस्था के नीवं हैं,फिर ये मुख्यधारा के मीडिया का विषय क्यों नहीं बन पा रहे हैं ?   

जाहिर है,यह दौर मिशनरी पत्रकारिता का नहीं है.यह व्यावसायिक और व्यापारिक पत्रकारिता का अंधा युग चल रहा है.मौजूदा मीडिया पूंजी से संचालित हो रहा है,इसलिए इसकी मूल जरुरत पूंजी और मुनाफा है.यहीं कारण है कि इस दौर का मीडिया खूंखार पूंजी से लथपथ है.कार्ल मार्क्स ने कभी ठीक ही कहा था कि पूंजीपति वर्ग उस जोंक के समान है,जो दूसरों का खून पीकर जिन्दा रहता है मौजूदा समय में इसका गंभीरता से पड़ताल कीजिये तो देखिएगा,मीडिया में पूंजी लगाने वाला वर्ग जोंक की तरह ही खून चूस रहा है.
      
यहीं कारण है कि भारतीय मीडिया आम आदमी के पक्ष में काम करने की बजाय भूमंडलीकरणआर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के साम्राज्यवादी फैलाव-विस्तार में सहयोगी की भूमिका अदा कर रहा.खूंखार पूंजीवाद से लथपथ मुख्यधारा का मीडिया आर्थिक मुनाफा और व्यावसायिक विस्तार के लिए राजसत्ता से गठजोड़कर का मुख्य एजेंडा बना रखा है.
इसीलिए इसके अंदर सामाजिक सरोकार की जगह सामाजिक बहिस्कार की भावना काम कर रही है.यहीं कारण है कि सोशल मीडिया एक नए विकल्प के तौर पर सामने आया है.       

वर्तमान मीडिया का तीन स्वरुप देखने को मिल रहा है.पहला जनपक्षधर मीडिया,दूसरा मुख्यधारा का मीडिया या कारपोरेट मीडिया.जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया शामिल है.तीसरा सोशल मीडिया है.जिसमें फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग.न्यूज पोर्टल आदि शामिल हैं.
जनपक्षधर मीडिया की पहुँच सीमित है,लेकिन इसका सरोकार बेहद जनवादी है.आमतौरपर इसका संचालन वामपंथी संगठनों और नागरिक समाज द्वारा किया जा रहा है. 




क्रमश जारी...