Saturday 9 June 2012

शहर बढ़ते गए,गाँव उजड़े गए

शहर बढ़ते गए,गाँव उजड़े गए

रेडियो पर सुना
गाँव बढ़े तो,देश बढ़े
हकीकत में देखा
शहर बढ़ते गए
गाँव उजड़े गए
हमारे लिए बनी योजनाएं कागज पर सिमटती गईं
उनकी योजनाएं विदेश में विस्तार लेती गईं
लोकतंत्र के पहरुए
तंत्र का तलुए चाटते रहे,लोक को लूटते रहे
लोग एक झोपड़ी के लिए अहकते रहे
शहर में लाखों के शौचालय बनते गए
अनाज गोदामों में चूहे खाते रहे
गरीब अनाज-अनाज चिल्लाते रहे,दम तोड़ते रहे
हम कहीं दूर खड़े होकर
जनतंत्र को आवाज़ देते रहे
रहनुमा सोते रहे
हम फटी बेवाई की पीड़ा में करवट बदलते रहे

रमेश यादव / 09/06/2012/ 2.PM./ नई दिल्ली
  
 
  

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