Thursday 31 May 2012

तुम खुदा,हम सुधा !




एक 

तुम 
लिखते हो जब भी कुछ 
लगता है 
खुद को 
समझ बैठे हो 
समाज का खुदा. 

दो 

तुम
लिखती हो
जब भी कुछ
समझ बैठती हो
स्वयं को
समाज की सुधा.

३१/०५/२०१२/ रात्रि ९.२४./ नई दिल्ली

तीन 

तुम 
लिखती हो जो कुछ भी लोग तुम पर फ़िदा हो जाते हैं...
मैं 
लिखता हूँ,जब भी कुछ 
लोग जुदा-जुदा दिखते हैं...

31/05/2012/12.23 PM


चार 
हम 
काठ थे
तुम
लोहार थे
अंतर बस इतना था
मुझमे और तुझमें
तुम 
गढ़ते गए
हम बनते गए
तुम 
बिगड़ते गए
हम 
सवंरते गए ...!
इसमें अंतर इतना था 
तुम 
'राज्य' के 'पाल' थे 
हम जन के ...

२९/०५/२०१२/नई दिल्ली.

1 comment:

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत बढ़िया सर!


सादर