Thursday 31 May 2012

तुम खुदा,हम सुधा !




एक 

तुम 
लिखते हो जब भी कुछ 
लगता है 
खुद को 
समझ बैठे हो 
समाज का खुदा. 

दो 

तुम
लिखती हो
जब भी कुछ
समझ बैठती हो
स्वयं को
समाज की सुधा.

३१/०५/२०१२/ रात्रि ९.२४./ नई दिल्ली

तीन 

तुम 
लिखती हो जो कुछ भी लोग तुम पर फ़िदा हो जाते हैं...
मैं 
लिखता हूँ,जब भी कुछ 
लोग जुदा-जुदा दिखते हैं...

31/05/2012/12.23 PM


चार 
हम 
काठ थे
तुम
लोहार थे
अंतर बस इतना था
मुझमे और तुझमें
तुम 
गढ़ते गए
हम बनते गए
तुम 
बिगड़ते गए
हम 
सवंरते गए ...!
इसमें अंतर इतना था 
तुम 
'राज्य' के 'पाल' थे 
हम जन के ...

२९/०५/२०१२/नई दिल्ली.

Wednesday 30 May 2012

इन्डियन काफी हॉउस: टूटते टेबल,छीजते विचार !

एक समय था जब इन्डियन काफी हॉउस के इन्हीं टेबलों पर लोग काफी की चुस्कियां लिए करते थे.
साहित्य-संस्कृति,देश-समाज पर चिंतन-मनन करते थे.
इन बहसबाज चिंतकों के विचार देश के कोने-कोने में जाते.अब समय बदल गया है.
वहीँ काफी हॉउस है.नाम वहीँ है.जगह वहीँ है.टेबल वहीँ है.कुछ लोग अब भी आते हैं,
लेकिन लगता है अब काफी और विचार दोनों टेबल के नीचे गिरते जा रहे हैं.
इन विचारों में अब टेबल से दूर जाने की क्षमता नहीं रही.
कम से कम यह टेबल तो यहीं गवाही दे रहा है...
पता नहीं यह किस क्षरण के श्रेणी में आएगा...
विस्तार से तो वहीँ लोग बताएँगे,जो काफी हॉउस को नजदीक से जानते हैं...



टेबल बना गवाह ...
टेबल बना गवाह

वर की तलाश में घर भर



जब भी आती हूँ घर  
वर की तलाश में लग जाता है घर भर
आजकल
मेरे लिए लड़का देखा जा रहा है
लगन का सीजन जो चल रहा है
माता-पिता मौन हैं
वे देखना चाहते हैं
मुझे
छूते हुए शिखर को
मेरे
भाई-भौजाई परेशान हैं
रोज एक नया लड़का
खोज लाते हैं
खिलौने की तरह
कहते हैं
इसे पसंद करो
उसे पसंद करो
पहला वाला डाक्टर है
दूसरा वाला इंजीनियर  
तीसरा वाला लेक्चरर है
चौथा वाला बिजनेसमैन
बड़े अच्छे स्वाभाव हैं सबके  
एक दम
पुरुषोत्तम राम की तरह
ताजिंदगी सुख देंगे
मैं
सभी को नीचे से ऊपर तक देखती हूँ
फिर बोलती हूँ
थोड़ा वक़्त चाहिए
जिंदगी भर के फैसले का सवाल है
भाई बोलते हैं
कब तक सोचने का बहाना करती रहोगी
तुमें
सोचते–सोचते बीत गए ११ साल  
अब २९ की हो चली हो
किसी को तो हाँ कह दो
इतने अच्छे रिश्ते बार-बार नहीं आते
मैं
जानती हूँ
अपने भाइयों की खूबी
वे  
देखना चाहते हैं
मेरी मांग में
एक किलो सिंदूर
और
गले में मंगल सूत्र का बंधा पट्टा   
और भाभियाँ
वहीँ तो लिखती हैं
इस षड़यंत्र की पटकथा
कितनी मजबूर होती है
एक लड़की
जब करना होता है
उसे मनचाहे
जीवन साथी का चुनाव
अपने ही हो जाते हैं पराये
जब फैसला न हो उनके अनुकूल
देते हैं दुहाई
इज्ज़त और मर्यादा का
मूल्यों और परम्पराओं का
रौंद देते हैं
अपने ही पैरों तले
खुद के बगिया का फुल
इस बार
फिर बच निकली हूँ
एक अवसर और मांगी हूँ
माँ और पिता से
भाई फिर नाराज़ हैं
भाभियाँ बैठी हैं
कोप भवन में
मैं
निकल पड़ी हूँ
एक बार फिर
खुले गगन में 


रमेश यादव
सृजन /१८ /05/२०१२/वाराणसी /सतीश का कमरा    

मैं एक दरवाजा हूँ !

मैं
एक दरवाजा हूँ 
तुम्हारे सभ्यता/संस्कृति /संस्कार /परम्परा/मूल्य/आदर्श और सिद्धांत का
मैं
खुलता हूँ
तुम्हारे
घर/गाँव /जिले /प्रदेश /देश
और      
तुम्हारे जीवन में
अब मैं जर्जर हो रहा हूँ 
मुझे बचाओ 
हवा /पानी /धूप और उम्र से नहीं 
उनसे जो मुझे बंद कर रहे हैं 
और खोल रहे हैं 
उनके लिए
जो तुम्हारे
आज़ादी को सदियों बंधक बना के रखे
मेरी हिफाज़त करो
उनसे नहीं
अपनों से....

रमेश यादव
सृजन/6/05/2012/बनारस/ सतीश का कमरा 

Monday 28 May 2012

'मैं' को 'हम' में बदल दो !

शब्द 
क्या हैं ? 
मेरे दुश्मन हैं 
आजकल 
मुझे 
सोने नहीं देते 
बेचैन किये रहते हैं 
मैं 
परेशां हूँ
शब्दों के आहट से 
उनके दस्तक से 
चिंतित हूँ शब्दों के समावेश से
अंकुरित होते शब्दों से
आकार लेते शब्दों से
कहाँ भागूं,कैसे भांगू
घिरा हूँ
मैं
शब्दों से
आगे से,पीछे से
अंदर से बाहर से
मन से,मस्तिष्क से
दिल से दिमाग से
चिल्लाता हूँ
मैं
करता हूँ पुकार
छोड़ दो
मुझे
करो
मेरा उद्धार,उपकार
मैं
'मैं' हूँ
हो सके तो
मुझे 'हम में बदल दो
नहीं भूलूँ'गा
तुम्हारा
अहसान ........

रमेश यादव / 26 मई,2012/9.36 पूर्वाहन. वाराणसी,सतीश के कमरे से.

दादी स्त्रीवादी है या वंशवादी ....?

एक 


एक माँ के लिए बेटा-बेटी बराबर है,लेकिन वंशवादी पति को क्या चाहिए ...? 
ऐसे मामलों में दादी अपने बेटे के पक्ष में खड़ी दिखाती है. 
यहाँ दादी स्त्रीवादी है या वंशवादी ....?
कितना निर्मम और निरंकुश रहा होगा और है वंश चलने की परम्परा ....
सन्दर्भ के लिए देखिये -कलर्स पर 'मधुबाला'


दो 

पहले गाँव में कुछ एक महिलाएं होती थीं,जो गर्भवती महिला के चाल और पेट के आकार को देख-नाप कर बता देती थीं कि लड़की होगी या लड़का.
आज यह जगह मशीन ने ले ली है.लेकिन तब की महिला और आज के मशीन में एक बुनियादी फर्क है .यदि उस महिला को आभास होता कि बेटी पैदा होने की स्थिति में गर्भवती माँ मार दी जायेगी तो वह वही बताती,जिससे उसकी जान बच जाये.आमतौर पर.
यहीं अंतर है मानव और मशीन में... 
सन्दर्भ के लिए देखिये -कलर्स पर 'मधुबाला'


दादी स्त्रीवादी है या वंशवादी ....?

एक 


एक माँ के लिए बेटा-बेटी बराबर है,लेकिन वंशवादी पति को क्या चाहिए ...? 
ऐसे मामलों में दादी अपने बेटे के पक्ष में खड़ी दिखाती है. 
यहाँ दादी स्त्रीवादी है या वंशवादी ....?
कितना निर्मम और निरंकुश रहा होगा और है वंश चलने की परम्परा ....
सन्दर्भ के लिए देखिये -कलर्स पर 'मधुबाला'


दो 

पहले गाँव में कुछ एक महिलाएं होती थीं,जो गर्भवती महिला के चाल और पेट के आकार को देख-नाप कर बता देती थीं कि लड़की होगी या लड़का.
आज यह जगह मशीन ने ले ली है.लेकिन तब की महिला और आज के मशीन में एक बुनियादी फर्क है .यदि उस महिला को आभास होता कि बेटी पैदा होने की स्थिति में गर्भवती माँ मार दी जायेगी तो वह वही बताती,जिससे उसकी जान बच जाये.आमतौर पर.
यहीं अंतर है मानव और मशीन में... 
सन्दर्भ के लिए देखिये -कलर्स पर 'मधुबाला'


Tuesday 1 May 2012

भोजन बनाता हूँ मैं,भोग लगाती हैं चीटियाँ



मेरे फ़्लैट की गैलरी में बहुत दिनों से कबूतरों का बसेरा है.एक अंडा देती है,सेती है,उसमें से चूज्जे निकलते हैं.वह जाये इससे पहले ही,दूसरी अंडा देकर कब्जा जमा लेती है.पता नहीं क्यों ? 
इन दिनों चीटियाँ ने भी कब्जा जमाया हुआ है.जो भो हो इस रचना के लिए चीटियों ने ही मुझे उकसाया है.'माँ' को भी याद दिलाया है.आज प्रस्तुत है उन्हीं पर यह अभिव्यक्ति...   




रमेश यादव 

2 मई,2012

आज कल मेरे घर-किचन में कब्जा जमायीं हैं चीटियाँ 
छोटी-छोटी लाल-लाल,कई-कई झुण्ड बनाती हैं चीटियाँ,
कहाँ से आयीं हैं,पता नहीं.
दो माह से एक छत्र राज़ कायम की हैं चीटियाँ.
खाना बनाता हूँ मैं,भोग लगाती हैं चीटियाँ 
मेरे हिस्से का भी खा जाती हैं चीटियाँ 
हर सामान में लगाती हैं सेंध
मना करने पर चढ़ जाती हैं चीटियाँ 
बाज़ार से खरीद लाता हूँ ब्रेड,मेरे खाने से पहले
उसमें घुस जाती हैं चीटियाँ 
लाता हूँ दूध,बनाता हूँ चाय.
बचे हुए दूध में तैरती हैं चीटियाँ   
जब भी बैठता हूँ सोफा पर काटती हैं चीटियाँ
किससे लिए हो इज़ाज़त,हमीं से पूछती हैं चीटियाँ 
मेरी ही चीजों पर हक़ जमाती हैं चीटियाँ
बराबरी का हक़ मांगती है चीटियाँ   
डायनिंग टेबलपर भी राज़ करती हैं चीटियाँ   
क्या बताऊँ,कमरे में कहाँ-कहाँ नहीं हैं चीटियाँ,
जहाँ जाता हूँ,वहीँ मिल जाती हैं चीटियाँ 
बड़े मन से लाता हूँ 'सेम की सब्जी'
पकाने से पहले,उसमें घूस जाती हैं चीटियाँ 
दाल रखा है बंद डब्बे में,खोलता हूँ जब,उसमें से भागती हैं चीटियाँ 
जहाँ देखती हैं ठंडा,वहीँ जमावड़ा लगाती हैं चीटियाँ 
गर्मी से बिलबिलाती,किचन में शरण पाती हैं चीटियाँ 
काटती हैं ऐसे,जैसे चुभोती हैं सुइयां 
खोजता हूँ छटपटाकर,नहीं मिलती हैं चीटियाँ 
भभाता है बदन मेरा,भाग जाती हैं चीटियाँ 
 तंग चीटियों से पड़ोसी,एक दिन मंगाता है दवाई 
कहता है मुझसे,छिड़कवाइए दवाई 
मर जाएँगी सब चीटियाँ,हम बजायेंगे शहनाई     
मैं देखता हूँ,उसकी तरफ 
सोचता हूँ,एक पल 
करता हूँ इंकार
कहता हूँ 
बड़े भाग्य से आती हैं चीटियाँ 
मेरे घर में बसेरा बनाती हैं चीटियाँ   
पुरखों ने हमें दिए हैं संस्कार 
डहरी-डाडें जब भी मिले चीटियाँ
बच के निकलना,न रौदना चीटियाँ 
खुश हो जाएँगी चीटियाँ 
घर में दिखें,छिड़कना अंटा 
मन भर आशीष,देंगीं चीटियाँ 
जब भी कैम्पस से आता हूँ घर में 
इधर-उधर डोलती मिलती हैं चीटियाँ 
डालता हूँ आंटा खा जाती हैं चीटियाँ 
होकर मगन घर भर का मुआइना करती हैं चीटियाँ
कहतीं हैं 
'माँ'
मत मारना कभी चीटियाँ 
हाथी से मुकाबला करती हैं चीटियाँ 
उनसे लेना सदा सीख,उन्हीं से पढ़ना एकता का पाठ
चलती हैं कैसे झुंड में चीटियाँ 
गिर-गिर कर उठती-संभलती,चलती हैं चीटियाँ 
हार कर सत्रह बार जब निराश बैठा था,'मोहम्मद गोरी'
 जीता था अठारहवीं बार,सीख दी थीं उसे चीटियाँ
माँ 
ने कहा 
जीवन पथ पर भले गिरना-उठना,संभलना-चलना   
मगर कभी भी न मारना-रौदना चीटियाँ.

डॉ.रमेश यादव 
सहायक  प्रोफ़ेसर 
पत्रकारिता एवं नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ,इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय,मैदान गढ़ी,नई दिल्ली.