Monday 30 April 2012

मैं मई दिवस हूँ



मैं मई दिवस हूँ 

रमेश यादव 

1 मई,2012 , नई दिल्ली. 


मैं कवि नहीं हूँ,लेकिन पता नहीं क्यों आजकल मेरे ऊपर कवि होने का भूत सवार है.यह काव्य पाठ में जाने का असर है या घर में 'कविता' के होने का.ऊर्जा का स्रोत चाहे जो भी हो,लेकिन कविता का स्रोत तो अपना जीवन ही है.हाँ ! मेरी रचना में रस, अलंकार, छंद, प्रवाह,शिल्प,व्याकरण,परिष्कृत हिन्दी की शुद्धता और शब्दों के परम्परागत संस्कार की तलाश मत कीजिये. हमारा विकास किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक कोख से नहीं हुआ है.हम गाँव के डहर / पगडंडियों से निकलकर आयें हैं.इसलिए हमारी कोई एक तराशी हुई भाषा नहीं है.हमारी पैदाइश जन भाषा के गर्भ से हुई है.इसलिए मेरे लहू में इसी का संचार होता है.यहाँ मेरी कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं,
उम्मीद है आप इसे पढ़ेंगे और निर्मम आलोचना करेंगे...  

1

मैं  
मजदूर हूँ 
प्रतिवर्ष आता हूँ 
एक मई को 
मजदूर दिवस के रूप में 
किसी रश्म की तरह 
लोग निकालते हैं जुलूस,लगाते हैं नारे, देते हैं भाषाण  
पढ़ते हैं मर्सिया,लेते हैं संकल्प  
मेरी आज़ादी का 
मेरी मुक्ति का 
फिर भी मैं सदियों से 
मजबूर हूँ 
मजदूर जो हूँ 

2
 
मैं मजदूर हूँ 
करता हूँ 
हाड़तोड़ मेहनत 
खाता हूँ 
नमक-प्याज के साथ रोटी 
चटनी-चोखा, मांड़ और भात 
करता हूँ 
राष्ट्रा का निर्माण 

3  

मैं 
मजदूर दिवस हूँ 
मुझमें समाहित हैं 
दुनिया के सभी मजदूर 
उनके खून और पसीने 
जीवन और संघर्ष
सपने और संकल्प   
उम्मीद और उजास 

4

मैं 
मजदूर हूँ 
मेरा मुल्क है आजाद 
मैं हूँ गुलाम 
मेरी मुक्ति की लड़ाई लड़ते हैं 
तमाम रंग-बिरंगे संगठन 
फिर भी 
मैं 
सदियों से मजदूर हूँ
मजबूर हूँ
क्योंकि 
मजलूम हूँ.  
 

मैं
मजदूर हूँ 
कभी दक्षिणपंथ हूँ 
कभी वामपंथ तो 
कभी मध्यमार्गीय 
दरअसल 
मैं 
सिर्फ और सिर्फ 
मजदूर हूँ 
मजदूरी ही मेरा पंथ है 


मैं
मजदूर हूँ
मेरे ही श्रम से होता है पूंजीवाद का रक्त संचार
मेरे ही श्रम के नींव पर टिका है साम्राज्यवाद 
चूसकर मेरा खून लेता है वैश्विक फैलाव 
मेरे श्रम की लूट पर होता है   
उसका आर्थिक विस्तार 


मैं 
मजदूर हूँ 
मेरे बदन पर हैं फटे-पुराने कपड़े
हम  हैं जाहिल और गंवार 
उनके बदन हैं उघार
मैं  हूँ मजबूरी का शिकार 
वे हैं फैशन के फनकार 
मेरे खुले बदन को देखकर लोग मुंह फेर लेते हैं 
उन्हें देखकर,टक्कर खा लोग गिर जाते हैं 
मेरे पसीने के गंध से लोग दूर भागते हैं 
उनके पसीने को मदिरा सा नशा मानते हैं 
हम नंगे-भूखे और  
वे आधुनिक कहलाते हैं. 

8

मैं 
मजदूर था
हम  साथियों को 
कार्ल  मार्क्स ने आवाज़ दी 
कहा  
दुनिया के मजदूरों,एक हो !
हम एक हुए
लड़े और खूब लड़े 
हमारे ही संघर्ष के खून से लिखा गया 
विश्व संघर्ष का जन इतिहास 

9

मैं 
मजदूर हूँ
मैं लड़ा रहा हूँ 
आज भी मजदूरी के लिए.

10 

मैं 
मजदूर हूँ 
अभी थका नहीं हूँ, मैं ! 
संघर्षों के मैदानों में 
खेतों में खलिहानों में 
कल-कारखानों में 
अभी मेरे संकल्प जिंदा हैं 
आम अवाम के अरमानों में 
मेरी लड़ाई जारी है 
पूंजीवादी शोषण के खिलाफ 
जनवादी व्यवस्था स्थापित होने तक. 
मजदूर जरुर हैं हम 
मजबूर नहीं हैं.
हम लड़ेंगे 
सुबह होने तक.

7 comments:

Praveena joshi said...

मजदूर के जीवन की अंतहीन संघर्ष को शब्दों में उतारने के आपका प्रयास सफल हुआ है ...आभार

रमेश यादव said...

शुक्रिया प्रवीणा जी !

Yashwant R. B. Mathur said...

ज़बरदस्त है सर!


सादर

डॉ.सुनीता said...

अभिव्यक्ति के सागर में डूबकर जो भावाभिव्यक्ति की है वह काबिलेगौर है....
मेहनतकस लोगों के दर्द को जुबा दे दी है
saadr...!

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 04/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Unknown said...

कहने को तो आप मजदूर हैं लेकिन दिल में कहीं न कहीं दक्षिणपंथी और वामपंथी बसता है....जिस दिन सच्चे दिल से कलम के सिपाही बन जायेंगे उसी दिन समाज एवं
देश की सच्ची सेवा कर पाएंगे.......वैसे आप पत्रकारिता में अध्यन या अध्यापन जो भी करें एक व्यावसायिक कलम के सिपाही को जन्म देंगें सच्चे सिपाही को नहीं....
इसलिए अपने दिल से किसी पंथ के विचार को निकालकर निष्पक्ष पत्रकारिता को जन्म दें.......कृपया इसे अन्यथा न लें.....

Asha Joglekar said...

मजदूरों का दर्द और संघर्ष दोनों को सब्द देती है यह कविता ।