Saturday 28 April 2012

खबरिया चैनलों ने उगाया पार्लियामेंट के खेत में भगवान



रमेश यादव 
नई दिल्ली,28 अप्रैल,२०१२
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ.
कुछ लोग कह रहे हैं,
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता,
मैं  कहता हूँ कि 
गेगले-घोघले 
अगर जमीन पर भगवान जम सकता है,
तो आसमान में धान भी जम सकता है. 
और अब तो
दोनों में एक होकर रहेगा -
या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा 
या असमान में धान जमेगा.
रमाशंकर यादव 'विद्रोही' से मेरी मुलाकत नहीं है.पिछले दिनों उदयपुर से सुशील यती आये थे.मिलने के वास्ते.जाते हुए एक कविता संग्रह "नई खेती" दे गए.बोले पढ़िएगा.जब गाँव-माटी की याद आएगी.दिल्ली की माटी ठीक नहीं है.कल जब खबरिया चैनलों का संवाद सुना महानायक,महाशतक बीर,महान सचिन,अद्भुत सचिन,अतुलनीय सचिन,क्रिकेट का महा भगवान.इसके अलावा भी कई तरह के शब्द प्रयोग किये गए ...
खबरिया चैनल फ्लैश बैक में गए और टी.वी.स्क्रीन पर सचिन को छक्का-चौका मारते और सोनिया दरबार में जाते दिखाने लगे.मामला यहीं तक सीमित नहीं था,प्राइम टाइम भी सचिन के ही नाम रहा है.एक बारगी मुझे विद्रोही जी की उक्त कविता याद आ गई.वे जन स्वाभाव के अकेले कवि लगते हैं,जो अपनी कविता के माध्यम से 'असमान में धान जमा' कर 'भगवान को जमीन से उखाड़ने' पर अड़े हुए हैं.उनके ठीक उलट खबरिया चैनल और प्रिंट मीडिया ने क्रिकेट में एक नया भगवानजमाया.अब उसे क्रिकेट के मैदान से उखाड़कर पार्लियामेंट के खेत में रोप दिया है.इस तरह मीडिया के सौजन्य से रातों-रात भारतीय संसदीय इतिहास में एक नए भगवान उग आये हैं.जहाँ अब तक जनता के रहनुमा (?) आते रहे हैं.  
सचिन तेंदुलकर एक बेहतर और लोकप्रिय खिलाड़ी हैं.क्रिकेट में उनका अभूतपूर्व योगदान है.क्रिकेट के मैदान में वे असाधारण हैं.क्रिकेट प्रेमियों के लिए फ़िलहाल वे वैकल्पिक प्रेरणा के स्रोत हैं.लेकिन वे भगवान हैं ? इस बात से मेरी असहमति है.सिर्फ इन्हीं से नहीं,असहमति तो,इस देश में उन सभी तरह के भगवानों को लेकर है,जिन्हें पूजा जा रहा है.जिनके नाम पर पोगापंथी-कर्मकांडी,आस्था के आड़ में लोगों को लूट रहे हैं.और गोरख धंधा कर रहे हैं. खैर,मुख्य विषय पर आते हैं.       
सचिन राज्य सभा के लिए मनोनीत किये गए हैं.यह बहुतों के लिए खुश खबरी है तो बहुतों के लिए दुःख भरी खबरी.लोग कांग्रेस की नियत पर सवाल उठा रहे हैं.बहुतेरे क्रिकेटर हैं,जिन्हें कांग्रेस ने कभी याद नहीं किया.लोग इसे कांग्रेस के खास राजनैतिक उद्देश्य से जोड़कर भी देख रहे हैं.कांग्रेस महाराष्ट और उसके आसपास के राज्यों में सचिन की लोकप्रियता का राजनैतिक लाभ उठाना चाहती है.

मीडिया ने खोला भगवान बनाने का कारखाना

२७ अप्रैल को सभी अखबारों ने इसको प्रमुखता से प्रकाशित किया.टाइम्स आफ इंडिया ने शीर्षक दिया- 'God has a new House'.लगता है,प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के संस्थान भगवान बनाने का कारखाना खोल रखे हैं.
मीडिया ने यह लाइसेंस उनसे छिना है,जो इसके पहले भगवान-खुदा आदि बना कर उन्हें स्थापित करते थे.एक समय था जब डाक्टर, इंजीनियर,वैज्ञानिक,दार्शनिक और विद्वतजन गुरुकुल / शिक्षण संस्थाओं द्वारा पैदा किये जाते थे.अब ये संस्थाएं खुद संकट में हैं,अपनी भूमिकाओं को लेकर.लेकिन इसके इतर मौजूदा मीडिया एक नयी भूमिका में दिख रहा है.यह समाज में रिक्तता को अपनी तरह से भर रहा है.महान भगवान और निर्मल बाबा के जरिये.  
इसके द्वारा गढ़े गए शब्दों,किये गए नामकरण को नमूने के तौर पर देखिये-महा भगवान,युवराज,योगगुरु,गाँधी अवतार,सदी का महानायक, बादशाह,निर्मल बाबा, ड्रीम गर्ल,धक-धक गर्ल, स्वर कोकिला. आदि, इत्यादि. संबंधित लोग इस तरह के नामों से खुद असहज महसूस करते हैं.इस मामले में मीडिया का कोई मूल्यगत भाव नहीं होता.बल्कि इसके पीछे उसका अपना प्रसार/टीआरपी बढ़ाने का व्यवसायिक मनोविज्ञान काम करता है.यहाँ पर मीडिया का चरित्र उन कर्मकांडियों की तरह है,जो जन्म से लगायत मृत्यु तक के सभी कर्मकांडों में अपने यजमान से मोटी रकम एंठते/वसूलते हैं.जब लोग शोक में डूबे होते हैं,तब ये फायदे के लिए जुगाड़ भिड़ाते नज़र आते हैं.ठीक यही स्थिति मौजूदा मीडिया का है.यदि किसी को युवराज और भगवान बनाने से उसका फायदा हो रहा है,तो उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि युवराज को जनता अस्वीकार कर देगी और भगवान के अस्तित्व को नकार देगी ? 
उसे लगा कि निर्मल बाबा से करोड़ों का फायदा हो रहा है,तो उन्हें लाईव दिखाया और जब लगा,बाबा का दूसरा रूप दिखाने से नुकसान नहीं होगा तो,वह भी किया.उसे दोनों परिस्थिति में फायदा हुआ और टीआरपी बढ़ी.जाहिर है,बाज़ार और धंधे का कोई मूल्य नहीं होता,इसलिए यहाँ उसे भी अपने मूल्य को लेकर कोई विशेष चिंता नहीं है.

सबसे बड़ा कौन पार्लियामेंट या भगवान ?

जब जन लोकपाल को लेकर पार्लियामेंट की भूमिका पर लोग सवाल उठा रहे थे.तब पार्लियामेंट के अन्दर बैठे रहनुमा,आम अवाम को संसद के प्रभुत्व/श्रेष्ठता /प्रधानता के बारे में समझा रहे थे.

अब जब मीडिया ने पार्लियामेंट में एक भगवान को भेज दिया है,देखना है इस भगवान के अस्तित्व को कौन चुनौती देता है? हालाँकि इसके पहले लता मंगेशकर को भी राज्य सभा के लिए मनोनीत किया गया था,लेकिन वे पार्लियामेंट के ड्योढ़ी पर कभी कदम तक नहीं रखीं.पता नहीं यहाँ लता बड़ी हैं या पार्लियामेंट ? आप खुद अनुमान लगाइए या फिर खबरिया चैनलों पर छोड़ दीजिये.संभव है वे इसके लिए भी एक नया शब्द ढूंढ़ निकालेंगे.       

सवाल 

सवाल उठता है.जब संगीत/कला/क्रिकेट आदि से लोग राज्य सभा के लिए मनोनीत हो सकते हैं,जिनका लकार तक नहीं फूटता,तो फिर हाड़तोड़ मेहनत- श्रम करने वालों को क्यों न मनोनीत किया जाये ? सरकार को इसमें क्या परेशानी है ? कम से कम वे श्रम की लूट और श्रमिकों के दर्द और पीड़ा को तो पार्लियामेंट में अभिव्यक्त करेंगे.वैसे भी यह लोकतंत्र है (?) 

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