Monday 30 April 2012

मैं मई दिवस हूँ



मैं मई दिवस हूँ 

रमेश यादव 

1 मई,2012 , नई दिल्ली. 


मैं कवि नहीं हूँ,लेकिन पता नहीं क्यों आजकल मेरे ऊपर कवि होने का भूत सवार है.यह काव्य पाठ में जाने का असर है या घर में 'कविता' के होने का.ऊर्जा का स्रोत चाहे जो भी हो,लेकिन कविता का स्रोत तो अपना जीवन ही है.हाँ ! मेरी रचना में रस, अलंकार, छंद, प्रवाह,शिल्प,व्याकरण,परिष्कृत हिन्दी की शुद्धता और शब्दों के परम्परागत संस्कार की तलाश मत कीजिये. हमारा विकास किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक कोख से नहीं हुआ है.हम गाँव के डहर / पगडंडियों से निकलकर आयें हैं.इसलिए हमारी कोई एक तराशी हुई भाषा नहीं है.हमारी पैदाइश जन भाषा के गर्भ से हुई है.इसलिए मेरे लहू में इसी का संचार होता है.यहाँ मेरी कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं,
उम्मीद है आप इसे पढ़ेंगे और निर्मम आलोचना करेंगे...  

1

मैं  
मजदूर हूँ 
प्रतिवर्ष आता हूँ 
एक मई को 
मजदूर दिवस के रूप में 
किसी रश्म की तरह 
लोग निकालते हैं जुलूस,लगाते हैं नारे, देते हैं भाषाण  
पढ़ते हैं मर्सिया,लेते हैं संकल्प  
मेरी आज़ादी का 
मेरी मुक्ति का 
फिर भी मैं सदियों से 
मजबूर हूँ 
मजदूर जो हूँ 

2
 
मैं मजदूर हूँ 
करता हूँ 
हाड़तोड़ मेहनत 
खाता हूँ 
नमक-प्याज के साथ रोटी 
चटनी-चोखा, मांड़ और भात 
करता हूँ 
राष्ट्रा का निर्माण 

3  

मैं 
मजदूर दिवस हूँ 
मुझमें समाहित हैं 
दुनिया के सभी मजदूर 
उनके खून और पसीने 
जीवन और संघर्ष
सपने और संकल्प   
उम्मीद और उजास 

4

मैं 
मजदूर हूँ 
मेरा मुल्क है आजाद 
मैं हूँ गुलाम 
मेरी मुक्ति की लड़ाई लड़ते हैं 
तमाम रंग-बिरंगे संगठन 
फिर भी 
मैं 
सदियों से मजदूर हूँ
मजबूर हूँ
क्योंकि 
मजलूम हूँ.  
 

मैं
मजदूर हूँ 
कभी दक्षिणपंथ हूँ 
कभी वामपंथ तो 
कभी मध्यमार्गीय 
दरअसल 
मैं 
सिर्फ और सिर्फ 
मजदूर हूँ 
मजदूरी ही मेरा पंथ है 


मैं
मजदूर हूँ
मेरे ही श्रम से होता है पूंजीवाद का रक्त संचार
मेरे ही श्रम के नींव पर टिका है साम्राज्यवाद 
चूसकर मेरा खून लेता है वैश्विक फैलाव 
मेरे श्रम की लूट पर होता है   
उसका आर्थिक विस्तार 


मैं 
मजदूर हूँ 
मेरे बदन पर हैं फटे-पुराने कपड़े
हम  हैं जाहिल और गंवार 
उनके बदन हैं उघार
मैं  हूँ मजबूरी का शिकार 
वे हैं फैशन के फनकार 
मेरे खुले बदन को देखकर लोग मुंह फेर लेते हैं 
उन्हें देखकर,टक्कर खा लोग गिर जाते हैं 
मेरे पसीने के गंध से लोग दूर भागते हैं 
उनके पसीने को मदिरा सा नशा मानते हैं 
हम नंगे-भूखे और  
वे आधुनिक कहलाते हैं. 

8

मैं 
मजदूर था
हम  साथियों को 
कार्ल  मार्क्स ने आवाज़ दी 
कहा  
दुनिया के मजदूरों,एक हो !
हम एक हुए
लड़े और खूब लड़े 
हमारे ही संघर्ष के खून से लिखा गया 
विश्व संघर्ष का जन इतिहास 

9

मैं 
मजदूर हूँ
मैं लड़ा रहा हूँ 
आज भी मजदूरी के लिए.

10 

मैं 
मजदूर हूँ 
अभी थका नहीं हूँ, मैं ! 
संघर्षों के मैदानों में 
खेतों में खलिहानों में 
कल-कारखानों में 
अभी मेरे संकल्प जिंदा हैं 
आम अवाम के अरमानों में 
मेरी लड़ाई जारी है 
पूंजीवादी शोषण के खिलाफ 
जनवादी व्यवस्था स्थापित होने तक. 
मजदूर जरुर हैं हम 
मजबूर नहीं हैं.
हम लड़ेंगे 
सुबह होने तक.

Sunday 29 April 2012

कविता क्या है ?


रमेश यादव 
२८ अप्रैल,२०१२.नई दिल्ली. 
मैं कवि नहीं हूँ,लेकिन पता नहीं क्यों आजकल मेरे ऊपर कवि होने का भूत सवार है.यह काव्य पाठ में जाने का असर है या घर में 'कविता' के होने का.ऊर्जा का स्रोत चाहे जो भी हो,लेकिन कविता का स्रोत तो अपना जीवन ही है...
यहाँ मेरी कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं,
उम्मीद है आप इसे पढ़ेंगे और निर्मम आलोचना करेंगे...    

1
मेरे पुरुखों ने 
इतने लिंग-भेद किये हैं 
कि 
मैं 
लिंग में 
भेद करना भूल गया हूँ .


तुम फेसबुक की कविता हो 
मैं खेत-खलिहान की कविता हूँ 
लोग तुम्हें पसंद करते हैं 
और  
गाँव के लोग मुझे जीते हैं
अपनी ज़िन्दगी के रगों में. 


क्या कविता 
वह है जो 
ताली बजाने के लिए उत्साहित करती है   
या  
वह है 
जो लोगों के आँखों से 
मोती बन टपकती है. 


एक दिन 
कविता चिल्लाई 
मुझे बचाओ 
बाज़ार से नहीं 
उनसे जो मुझे लिखते-पढ़ते हैं. 

5
कवि कौन है ?
वह 
जो लिखता है 
या वह 
जो लिखा हुआ पढ़ता है 
या फिर वह 
जिस पर लिखा जाता है. 


कविता 
दुनिया का भूमंडलीकरण नहीं करती  
बल्कि 
गाँवों का भूमंडलीकरण करती है. 

7

एक 
मैं हूँ जो 
कविता को ढोता हूँ 
एक वो हैं 
जो कविता को पढ़ते हैं 
मेरी पहचान एक श्रमिक की है 
और उनकी 
शहर के मशहूर कवि की. 

Saturday 28 April 2012

खबरिया चैनलों ने उगाया पार्लियामेंट के खेत में भगवान



रमेश यादव 
नई दिल्ली,28 अप्रैल,२०१२
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ.
कुछ लोग कह रहे हैं,
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता,
मैं  कहता हूँ कि 
गेगले-घोघले 
अगर जमीन पर भगवान जम सकता है,
तो आसमान में धान भी जम सकता है. 
और अब तो
दोनों में एक होकर रहेगा -
या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा 
या असमान में धान जमेगा.
रमाशंकर यादव 'विद्रोही' से मेरी मुलाकत नहीं है.पिछले दिनों उदयपुर से सुशील यती आये थे.मिलने के वास्ते.जाते हुए एक कविता संग्रह "नई खेती" दे गए.बोले पढ़िएगा.जब गाँव-माटी की याद आएगी.दिल्ली की माटी ठीक नहीं है.कल जब खबरिया चैनलों का संवाद सुना महानायक,महाशतक बीर,महान सचिन,अद्भुत सचिन,अतुलनीय सचिन,क्रिकेट का महा भगवान.इसके अलावा भी कई तरह के शब्द प्रयोग किये गए ...
खबरिया चैनल फ्लैश बैक में गए और टी.वी.स्क्रीन पर सचिन को छक्का-चौका मारते और सोनिया दरबार में जाते दिखाने लगे.मामला यहीं तक सीमित नहीं था,प्राइम टाइम भी सचिन के ही नाम रहा है.एक बारगी मुझे विद्रोही जी की उक्त कविता याद आ गई.वे जन स्वाभाव के अकेले कवि लगते हैं,जो अपनी कविता के माध्यम से 'असमान में धान जमा' कर 'भगवान को जमीन से उखाड़ने' पर अड़े हुए हैं.उनके ठीक उलट खबरिया चैनल और प्रिंट मीडिया ने क्रिकेट में एक नया भगवानजमाया.अब उसे क्रिकेट के मैदान से उखाड़कर पार्लियामेंट के खेत में रोप दिया है.इस तरह मीडिया के सौजन्य से रातों-रात भारतीय संसदीय इतिहास में एक नए भगवान उग आये हैं.जहाँ अब तक जनता के रहनुमा (?) आते रहे हैं.  
सचिन तेंदुलकर एक बेहतर और लोकप्रिय खिलाड़ी हैं.क्रिकेट में उनका अभूतपूर्व योगदान है.क्रिकेट के मैदान में वे असाधारण हैं.क्रिकेट प्रेमियों के लिए फ़िलहाल वे वैकल्पिक प्रेरणा के स्रोत हैं.लेकिन वे भगवान हैं ? इस बात से मेरी असहमति है.सिर्फ इन्हीं से नहीं,असहमति तो,इस देश में उन सभी तरह के भगवानों को लेकर है,जिन्हें पूजा जा रहा है.जिनके नाम पर पोगापंथी-कर्मकांडी,आस्था के आड़ में लोगों को लूट रहे हैं.और गोरख धंधा कर रहे हैं. खैर,मुख्य विषय पर आते हैं.       
सचिन राज्य सभा के लिए मनोनीत किये गए हैं.यह बहुतों के लिए खुश खबरी है तो बहुतों के लिए दुःख भरी खबरी.लोग कांग्रेस की नियत पर सवाल उठा रहे हैं.बहुतेरे क्रिकेटर हैं,जिन्हें कांग्रेस ने कभी याद नहीं किया.लोग इसे कांग्रेस के खास राजनैतिक उद्देश्य से जोड़कर भी देख रहे हैं.कांग्रेस महाराष्ट और उसके आसपास के राज्यों में सचिन की लोकप्रियता का राजनैतिक लाभ उठाना चाहती है.

मीडिया ने खोला भगवान बनाने का कारखाना

२७ अप्रैल को सभी अखबारों ने इसको प्रमुखता से प्रकाशित किया.टाइम्स आफ इंडिया ने शीर्षक दिया- 'God has a new House'.लगता है,प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के संस्थान भगवान बनाने का कारखाना खोल रखे हैं.
मीडिया ने यह लाइसेंस उनसे छिना है,जो इसके पहले भगवान-खुदा आदि बना कर उन्हें स्थापित करते थे.एक समय था जब डाक्टर, इंजीनियर,वैज्ञानिक,दार्शनिक और विद्वतजन गुरुकुल / शिक्षण संस्थाओं द्वारा पैदा किये जाते थे.अब ये संस्थाएं खुद संकट में हैं,अपनी भूमिकाओं को लेकर.लेकिन इसके इतर मौजूदा मीडिया एक नयी भूमिका में दिख रहा है.यह समाज में रिक्तता को अपनी तरह से भर रहा है.महान भगवान और निर्मल बाबा के जरिये.  
इसके द्वारा गढ़े गए शब्दों,किये गए नामकरण को नमूने के तौर पर देखिये-महा भगवान,युवराज,योगगुरु,गाँधी अवतार,सदी का महानायक, बादशाह,निर्मल बाबा, ड्रीम गर्ल,धक-धक गर्ल, स्वर कोकिला. आदि, इत्यादि. संबंधित लोग इस तरह के नामों से खुद असहज महसूस करते हैं.इस मामले में मीडिया का कोई मूल्यगत भाव नहीं होता.बल्कि इसके पीछे उसका अपना प्रसार/टीआरपी बढ़ाने का व्यवसायिक मनोविज्ञान काम करता है.यहाँ पर मीडिया का चरित्र उन कर्मकांडियों की तरह है,जो जन्म से लगायत मृत्यु तक के सभी कर्मकांडों में अपने यजमान से मोटी रकम एंठते/वसूलते हैं.जब लोग शोक में डूबे होते हैं,तब ये फायदे के लिए जुगाड़ भिड़ाते नज़र आते हैं.ठीक यही स्थिति मौजूदा मीडिया का है.यदि किसी को युवराज और भगवान बनाने से उसका फायदा हो रहा है,तो उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि युवराज को जनता अस्वीकार कर देगी और भगवान के अस्तित्व को नकार देगी ? 
उसे लगा कि निर्मल बाबा से करोड़ों का फायदा हो रहा है,तो उन्हें लाईव दिखाया और जब लगा,बाबा का दूसरा रूप दिखाने से नुकसान नहीं होगा तो,वह भी किया.उसे दोनों परिस्थिति में फायदा हुआ और टीआरपी बढ़ी.जाहिर है,बाज़ार और धंधे का कोई मूल्य नहीं होता,इसलिए यहाँ उसे भी अपने मूल्य को लेकर कोई विशेष चिंता नहीं है.

सबसे बड़ा कौन पार्लियामेंट या भगवान ?

जब जन लोकपाल को लेकर पार्लियामेंट की भूमिका पर लोग सवाल उठा रहे थे.तब पार्लियामेंट के अन्दर बैठे रहनुमा,आम अवाम को संसद के प्रभुत्व/श्रेष्ठता /प्रधानता के बारे में समझा रहे थे.

अब जब मीडिया ने पार्लियामेंट में एक भगवान को भेज दिया है,देखना है इस भगवान के अस्तित्व को कौन चुनौती देता है? हालाँकि इसके पहले लता मंगेशकर को भी राज्य सभा के लिए मनोनीत किया गया था,लेकिन वे पार्लियामेंट के ड्योढ़ी पर कभी कदम तक नहीं रखीं.पता नहीं यहाँ लता बड़ी हैं या पार्लियामेंट ? आप खुद अनुमान लगाइए या फिर खबरिया चैनलों पर छोड़ दीजिये.संभव है वे इसके लिए भी एक नया शब्द ढूंढ़ निकालेंगे.       

सवाल 

सवाल उठता है.जब संगीत/कला/क्रिकेट आदि से लोग राज्य सभा के लिए मनोनीत हो सकते हैं,जिनका लकार तक नहीं फूटता,तो फिर हाड़तोड़ मेहनत- श्रम करने वालों को क्यों न मनोनीत किया जाये ? सरकार को इसमें क्या परेशानी है ? कम से कम वे श्रम की लूट और श्रमिकों के दर्द और पीड़ा को तो पार्लियामेंट में अभिव्यक्त करेंगे.वैसे भी यह लोकतंत्र है (?) 

Saturday 21 April 2012








संकट में पत्रकार,फायदे में मीडिया संस्थान





 रमेश यादव 


22 अप्रैल,2012.

अब मीडिया संस्थानों को लिखने वालों की नहीं,मार्केटिंग करने वालों की जरूरत है.अखबार विज्ञापन से चल रहे हैं,लिखने से नहीं.अखबारों में जो सारा चमक-दमक दिख रहा है,वह तकनीक का कमाल है,कलम का नहीं.इसलिए कलम चलाने वालों के सामने संकट है,नियमित नौकरी और भविष्य की सुरक्षा को लेकर.अब तो इनके सामने परिवार को चलाने तक का संकट है.
        
पत्रकारिता संस्थान निरंतर फायदे में जा रहे हैं और उसे चलाने वाले तमाम तरह के संकट से जूझ रहे हैं.यह मंजर पूरे मुल्क का है,भले इसके रूप अलग-अलग हों.लेकिन इतना तो जगजाहिर है कि पत्रकारिता संस्थान पत्रकारों का खून चूसकर फलफूल रहे हैं.संस्थान के मालिक पूंजी और अखबार का निरंतर विस्तार कर रहे हैं.

इनका सरकारों के साथ साठगाठ है.दोनों एक दूसरे के महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं.अखबारों के संवाद सूत्र,संवाददाता और सम्पादकीय विभाग के लोग सर्वाधिक शोषण के शिकार हैं.बेशक इसके चपेट में सभी न हों,लेकिन बहुसंख्यक बिरादरी की यही कथा है.अंदरखाने में सभी को पता है कि बड़ा पैकेज किसे मिल रहा है और किसका भविष्य दिन-रात मेहनत करने के बावजूद असुरक्षित है.जाहिर है,सभी पत्रकार संपादक नहीं बन सकते और न ही घर-परिवार छोड़कर राजधानियों में अवसर तलाशा सकते हैं.

सभी सत्ता और मालिक के बिचौलिए नहीं हो सकते और मालिक के आगे-पीछे दुम नहीं हिला सकते.सबके चरित्र और स्वाभिमान के अलग-अलग रसायन होते हैं.यही वजह है कि दूसरों की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों की आज़ादी खुद खतरे में है.दूसरों की समस्याओं को उठाने वालों की समस्याओं पर कोई विचार करने वाला नहीं है.दूसरों की आवाज उठाने वालों की आवाज़ मीडिया संस्थानों में दफ़न है.

पत्रकारों के हितों कि रक्षा के लिए जो संगठन अस्तित्व में हैं,वे सिवा खानापूर्ति के कुछ भी नहीं कर रहे हैं,बल्कि यहाँ कहना अधिक सही होगा कि ये संगठन बनाकर बिचौलिए का काम कर रहे हैं.वर्ना ये सही तरीके से कम कर रहे होते तो इतनी समस्याए नहीं होती,जो आज दिख रही हैं.      
पत्रकारिता में भी लोग समाज से ही आते हैं.इसलिए जो बुराइयां वहीं थीं,वह यहाँ भी आ गई हैं.यहाँ भी हर तरह के जीव-जंतु मौजूद हैं.जो रीढ़हिन और अवसरवादी हैं,वे हर जगह,हर समय निजी फायदे में लगे रहते हैं.जो समझौता नहीं कर पाते,वे हाशिए पर रहते हैं.बेदखल किये जाते हैं.

दिल्ली और राज्य की राजधानियों के पत्रकार जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं,इसके उलट कस्बों और जिलों के पत्रकारों संघर्ष कर रहे हैं.पत्रकारिता में भी ठेके पर काम होने लगा है.नियमित नौकरी के दिन लद गए हैं.सर्वाधिक संस्थानों में नियुक्तियां अनुबंध पर हो रही है.इससे एक नए किस्म के शोषण का जन्म हुआ.

इस प्रकार के लोग निरंतर अपनी नौकरी सुरक्षित रखने में ही लगे रहते हैं.वैसे इनकी ड्यूटी आठ घंटे की होती है,लेकिन बारह घंटे से अधिक काम लिया जाता है.दिन-रात मेहनत के बावजूद मौजूदा जरुरत के हिसाब से इन्हें वेतन नहीं मिल रहा है.इनके ऊपर छटनी और असुरक्षा की तलवार हमेशा लटकती रहती है.किसी संस्थान में दशकों काम करने के बावजूद,इनका भविष्य सुरक्षित नहीं होता.संस्थान जब चाहे,बाहर का रास्ता दिखा सकता है.लोग संवैधानिक चुनौती भी नहीं देते.पचड़े में पड़ने से बचते हैं.

इसलिए लोग लड़ना नहीं चाहते.हमेशा नौकरी खोने का भय सताता रहता है.    
संस्थानों को इनसे जीतनी अधिक अपेक्षा रहती है,उसकी तुलना में वेतन और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलती है.इसकी वजह से दिमागी तौर पर ये दिन रात तनाव में रहते हैं.कभी कभार यदि भत्ते भी बढ़ते हैं तो बेसिक नहीं बढ़ते.क्योंकि इसकी वजह से फंड वगैरह कटेंगे,जिसका बोझ सीधे संस्थान पर जायेगा.इन्हें जितना आफर किया जाता है,उतना दिया भी नहीं जाता.
पत्रकारों के श्रम कानून और वेतनमान के मामले को लेकर कई कमीशन बने.लेकिन उनकी सिफारिशें व्यवहार में लागू नहीं की गई.

गत वर्ष बहुतेर संस्थान मंदी के नाम पर पत्रकारों की छटनी कर दिए.लोग सड़क पर आ गये.उम्र दराज (५० ) लोग इसके अधिक शिकार हुए.आज कल मीडिया संस्थानों में २० से ३५ साल के लोगों का अधिक प्राथमिकता दी जाती है.इस खास उम्र के ऊर्जा के शोषण के बाद यही संस्थान,इन्हें अनुपयोगी मानकर बाहर का रास्ता दिखा देते हैं.

कभी-कभी आर्थिक संकट या अन्य कोई इलज़ाम लगाकर  कई लोगों को निकाल दिया जाता है और बाद में उससे भी बड़े वेतन पर दूसरे लोगों को रख लिया जाता है.हालाँकि यह आतंरिक राजनीति का हिस्सा माना जाता है.लेकिन इस तरह की मनमानी पत्रकारों के भविष्य के लिए सबसे खतरनाक साबित हो रही है.      


‘पेपर और पेन लेस’ जर्नलिज्म
मौजूदा पत्रकारिता में योग्यता का कोई पैमाना नहीं है.आज कल कई तरह की योग्यताएं चर्चा का विषय हैं. मसलन,चयन करने वाले,खूबसूरत चेहरे को अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं.इसकी असली वजहें सभी जानते हैं.इसके आलावा जाति,क्षेत्र,भाई-भतीजा और अन्य स्वार्थों के संपर्क निर्णायक साबित हो रहे हैं.चयन प्रक्रिया बहुत पारदर्शी नहीं है.सभी वर्गों की समान भागीदारी भी नहीं है.  
बावजूद इसके,पत्रकारिता के ग्लैमर से प्रभावित बहिसंख्यक युवक मोटी रकम खर्चा करके 

पत्रकारिता की डिग्री हासिल कर रहे हैं.लेकिन उन्हें उनके प्रतीभा और ज्ञान पर नौकरी नहीं मिल रही है.क्योंकि संस्थानों को बुद्धि,विवेक,तर्कवादी और ज्ञानी लोगों की जरुरत नहीं है.उन्हें ऐसे लोगों की जरुरत है,जो बिना कुछ सोचे जो,कहा जाये वह कर सकें.मुख्य काम तो मार्केटिंग और सर्कुलेशन वाले कर रहे हैं.

आज मीडिया मालिकान और पत्रकारों का रिश्ता धोबी और गधे सरीखा है.जैसे धोबी,गधे के पीठ पर उसकी क्षमता से अधिक वजनी ‘लादी’ लादता है.सिवा इसे ढोने के गधे के पास कोई विकल्प नहीं होता.यदि गधे ने धोबी  के उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा तो धोबी उसकी जम कर पिटाई करता है और दाना-पानी भी बंद कर देता है.ठीक यही स्थित पत्रकारिता संस्थानों की है.सिर्फ स्वरूप में अंतर है.

आजकल पत्रकारों से गधे की तरह ही काम लिया जा रहा है.मसलन, उन्हें फिल्ड में जाकर समाचार संकलन करना है.आफिस में आकार कंप्यूटर पर टाईप करना है.खुद प्रूफ रीडिंग और संपादन करना है.हेडिंग (शीर्षक) और सब हेडिंग भी लगनी है.पेज भी तैयार करना है.यदि भूल वस इसमें कोई चूक हो गई या ऊपर वालों की नज़र में कमियां-खामियां दिखी तो नौकरी से हाथ धोने के लिए 

तैयार भी रहना है.इसे कहते हैं तलवार के धार पर कम करना.
पहले उक्त कार्यों को करने के लिए अलग-अलग जानकार  लोग होते थे.संचार क्रांति ने बहुतों के प्रतीभा की बलि ले ली.कंप्यूटर के आने से उन्हें,नौकरी से धकिया कर निकाल दिया गया.
जब ‘पेपर और पेन लेस’ पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ.पत्रकारों को बहु-आयामी (मल्टिडाइमेन्शनल) होने के लिए शर्त रखे गए.सारा काम उसी के कन्धों पर लाद दिए गए.लोगों के पास बहुत अवसर नहीं थे.हर आदमी अपना परिवार और शहर छोड़कर लखनऊ-दिल्ली नहीं जा सकता.इस मजबूरी का फायदा संस्थानों ने खूब उठाया.

यदि किसी एक ने इसका विरोध किया तो उसे संस्थान से निकाल दिया गया,जिनके लिए वह लड़ रहा था,वे ही लोग हजार-दो हजार में नौकरी करने के लिए संस्थान के बहार क़तर लगाये खड़े रहते हैं.मालिक को भी लगता है की जब कोई दो हजार में काम करने के लिए तैयार है तो किसी को २० हजार में क्यों रखा जाये.जितना वेतन एक को देंगे,उतने में दस लोगों को रख लेंगे.       
संवाददाताओं को वेतन न देना पड़े,इसलिए मीडिया संस्थान ‘हाकर’ से लगायत ‘पान के दुकानदार’ तक को संवाद सूत्र बन रहे हैं.अखबार का सर्कुलेशन का भार इन्हीं के कन्धों पर होता है.इसलिए संस्थान इन्हें सिर चढ़ाये रहते हैं.

इनके आमदनी का स्रोत बीके हुए अखबार का कमीशन,वेतन के नाम पर कुछ ‘टोकन मनी’ और संस्थान का आईकार्ड (परिचय पत्र).यह एक तरह का लाइसेंस है.इसे दिखाकर या इसके ताकत से अपने-अपने इलाके में चरिये-खाइए.पत्रकारिता के दुनिया में ऐसे लोगों को ‘संवाद सूत्र’ के नाम से भी जाना जाता है.यह सभी संस्थानों का सच नहीं है,लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता में यहीं प्रयोग हो रहा है.इनकी भूमिका और चरित्र के बारे में फिर कभी बात होगी.         

मौजूदा दौर में बड़े प्रकाशन समूह एक से अनेक भाषाओँ और क्षेत्रों में विस्तार ले रहे हैं.फायदे में भी हैं.वहीँ आंचलिक समाचार पत्र जिन्दा रहने के लिए जूझ रह हैं.आजकल तो बहुत से लोग हैं जो गलत तरीके से कमाए पैसे को मीडिया में लगा रहे हैं.    
सरकार भी यथास्थिति बनाये रखना चाहती है.सोचती है की अधिक अखबार आयेंगे तो उन्हें साधने में दिक्कत होगी,कम रहेंगे तो साधना आसान रहेगा.  
पत्रकारिता से जुड़े लोग चाहते हैं दो रुपये कम वेतन मिले,लेकिन भविष्य सुरक्षित हो.यह तभी होगा,जब नौकरी बरकार होगी.



Friday 20 April 2012

पाकिस्तान में हाहाकार,भारत में हुंकार


 

रमेश यादव
२० अप्रैल,२०१२,नई दिल्ली.   
पाकिस्तान बर्बादी का खौफनाक मंज़र देखकर चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था.गमज़दा नम आँखें,शून्य में देख रही थीं.बचाव कार्य जारी था.स्थानीय मीडिया भी डाटा हुआ था.पूरा माहौल गमगीन था.लोग एक दूसरे की तरफ मदद के लिए हाथ बढ़ा रहे थे.
ठीक इसी वक्त भारतीय में सर्वाधिक खबरिया चैनल अन्ना-रामदेव की प्रगाढ़ होती मित्रता का हुंकार भर रहे थे,तो कुछ निर्मल बाबा के बर्बादी और आईपीएल का जश्न मना रहे थे.बाकी जो बचे थे,वे राष्ट्रपति और नरेन्द्र मोदी की तरफ ताक-झांक कर रहे थे.   
पाकिस्तान में हुए विमान दुर्घटना की खबरें,यहाँ के खबरिया चैनलों में रश्म अदायगी भर दिखीं.कहा जाता है कि रिश्तेदार कितने भी घनिष्ठ और अच्छे क्यों न हों.जब घर में आग लगी होती है,उस वक्त बुरे पड़ोसी ही आग बुझाने में मदद करते हैं.
कम से कम इस मामले में खबरिया चैनलों को पड़ोसी धर्म का निर्वाह का करना चाहिए था.मौजूदा समय में जैसी वैश्विक परिस्थितियां बन रही हैं,उसमें दोनों मुल्कों को एक दूसरे के पक्ष में खड़े होने की जरूरत है.
आज भी दुनिया में दुःख-दर्द और संवेदना के बाज़ार-भाव का ग्राफ सर्वाधिक ऊंचाई पर है.मीडिया बखूबी इसका प्रयोग भी करता है.लेकिन यहाँ भारतीय खबरिया चैनल चूक गए लगते हैं.        
आखिर क्या वजह है कि बीना मालिक को लाईव दिखाने वाला खबरिया चैनल,इतने बड़े हादसे पर खबरों की खानापूर्ति करता हुआ नज़र आया.
याद कीजिये.गत माह की उस घटना को जब मुंबई में बीना मालिक कहीं छुप गई थी.खबरिया चैनल,उसकी याद में कई दिन तक रतजग्गा किये थे.
अभी हाल ही में पाकिस्तान के राष्ट्रपति ‘जरदारी’ भारत में जियारत करने आये थे.उस दौरान भी खबरिया चैनल, जरदारी,जायका और जियारत के पल-पल की जानकारी दे रहे थे.
उन दिनों को याद कीजिये जब भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होता है.यही खबरिया चैनल स्वस्थ्य सूचना-समाचार प्रस्तुत करने की जगह आत्मघाती दस्ता नजर आते हैं.
चैनल खेल के मैदान को ‘युद्ध भूमि’ में बदल देते हैं.जिस वक्त खिलाड़ी मैदान में खेल रहे होते हैं,ठीक उसी समय चैनल टीवी स्क्रीन पर जंग लड़े रहे होते हैं.खबर पेश करने का उनका अंदाज़ बहादुराना (असल कायराना) होता है.
बात यहीं तक सीमित नहीं होती.वे दोनों मुल्कों के खिलाड़ियों और दर्शकों में एक-दूसरे के खिलाफ प्रेम और सद्भावना की जगह आक्रोश,नफ़रत और उन्माद पैदा करते दिखते हैं.
जब भी दोनों देश मैत्रीपूर्ण संबंधों के लिए एक कदम आगे बढ़ते हैं,खबरिया चैनलों की सक्रिय और आक्रामकता दिखते बनती है.
ये सद्भावना के लिए भी प्रयास करते हैं,तब भी पता नहीं क्यों ? इनके शांति में भी अशांति और आतंक दिखता है.
भारतीय खबरिया चैनलों का यह व्यवहार,उनके दिल-दिमाग,दृष्टि और दृष्टिकोण को लेकर संदेह और सवाल पैदा करते हैं.बजाय वे आम-आदमी का हमदर्द बनते नज़र आते.
पाकिस्तान में विमान दुर्घटना :    
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के निकट एक यात्री विमान शुक्रवार की शाम दुर्घटनाग्रस्त हो गया है.भोजा एयरलाइंस का यह विमान इस्लामाबाद अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निकट दुर्घटनाग्रस्त होकर एक रिहायशी इलाके में गिर गया था.इस विमान पर 127 लोग सवार थे.यह विमान कराची से इस्लामाबाद जा रहा था.खराब मौसम के कारण रावलपिंडी के चकलाला के निकट दुर्घटनाग्रस्त हो गया.आपातकालीन सेवाएँ मौके पर पहुँच गई हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि इस विमान में 118 यात्री और चालक दल के नौ सदस्य सवार 
   

भारतीय शिक्षा व्यवस्था का कटोरावाद




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अतीत में वर्णभेद से ग्रसित थे,वर्तमान में अर्थ-भेद से त्रस्त हैं

रमेश यादव

12 अप्रैल,2012,नई दिल्ली.
वैसे तो भारतीय शिक्षा व्यवस्था को कई नामों से जाना जाता रहा है.यह कभी ‘गुरुकुल’ से सींचित हुआ.कभी ‘लार्ड मैकाले’ से.
कभी इस पर वर्ण-भेद की प्रेत छाया,छाई रही,वर्तमान में यह अर्थ-भेद से ग्रस्त है.
अब इसे ‘भारतीय शिक्षा का कटोरावाद’ के नाम से भी जानना चाहिए.
हमारे मुल्क में शिक्षा समाज के सभी वर्गों के लिए समान अवसर और गुणवत्ता माँ मानक कभी नहीं बन सका.
एक समय ऐसा भी आया जब सरकार ने शिक्षा को निजी हाथों में सौंप दिया.यहीं से शिक्षा का दरवाजा बाज़ार के लिए खुला.
फिर क्या था.देखते-देखते यहाँ धन्ना सेठों के बेटे-बेटियों का संख्या और वर्चस्व बढ़ने लगा.
बाज़ार और फायदे का नब्ज टटोलने वाले कुकुरमुत्ते की तरह कन्वेंट्स स्कूल खोलने लगे.
पैसे वालों पर अंग्रेजी शिक्षा का क्रेज इस कदर हावी होने लगा कि बहुसंख्य लोग सरकारी स्कूलों से बच्चों का नाम कटा कर प्राइवेट स्कूलों में भेजने लगे.
आगे चलकर स्कूलों की फ़ीस इतनी बढ़ी की गरीब-गुरबों के बेटे-बेटियों के लिए स्कूली शिक्षा भी दिवास्वप्न हो लगा.
जो कभी वर्ण भेद की वजह से शिक्षा नहीं ले सके,वे अब अर्थ भेद यानी आर्थिक संकट की वजह से इससे वंचित होने लगे हैं.
सरकार,निजी शिक्षण संस्थानों के फ़ीस और गुणवत्ता को  नियंत्रित करने में असफल रही है.
देखते-देखते सरकारी स्कूल उजड़ने लगे.सरकार को लोक कल्याणकारी राज्य होने का अहसास हुआ.  
६-१४ साल के बालक-बालिकाओं को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने के लिए ‘मिड डे मिल’ का चारा फेंका.
यह चारा ऐसा था,जिसमें पूरा ग्रामीण भारत फंसता हुआ नजर आया,उस मछली की तरह जिसे फंसाने के लिए मछुआरा जाल,महाजाल और कटिया फेंका करता है.
‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’,जिसे १ अप्रैल,२०१० में लागू किया गया.
अब क्या था अगड़ा हो या पिछड़ा,दलित हो या आदिवासी या फिर अल्पसंख्यक यानी सभी के लिए एक तरह की व्यवस्था.
यह ‘आमंत्रित समाजवाद’ था.स्कूल आने और दोपहर में भोजन खाने की.साथ ही मुफ्त में पुस्तक,ड्रेस और वजीफा भी.
इसे नंगे-भूखों को स्कूल तक लाने और आंकड़ा दिखाकर विश्व बैंक से मोटी रकम वसूलने की कवायद के तौर भी देखा जाने लगा है.           
एक समय था जब माता-पिता स्कूल के लिए तैयार होते वक़्त बच्चे से पूछते थे कि ‘स्लेट’-तख्ती,पटरी,दुधिया-दवात और सत्तर (धागा) झोले में रखे की नहीं.
समय ने करवट बदला.इसकी जगह पेन,पेन्सिल,रबर,कटर और पुस्तक आदि रखने की याद दिलाने की जगह गार्जियन‘ ने झोला में ग्लास,कटोरा और थाली’ रखने की हिदायत देना नहीं भूलते.
आज से इसे ‘भारतीय शिक्षा का कटोरावाद’ के नए नाम से भी  जानिए.यह मेरा दिया हुआ नाम है.इससे सहमति जरुरी नहीं है.
दरअसल नीति निर्धारकों का मानना था कि गार्जियन बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भले,न भेजें,लेकिन भोजन के लिए जरुर भेजेंगे.
यहीं हुआ बच्चे कटोरा लेकर पहुँचाने लगे.
अफसोस की वर्तमान में बुनियादी शिक्षा देने के लिए बच्चों को प्रकृति के साथ जोड़ने की जगह कटोरा‘ से जोड़ दिया गया. 
अब जब दुनिया ग्लोबल बन रही है.
वैश्विक संवाद-संचार और रोजगार की भाषा ग्लोबलिश‘ हो रही है.
ऐसे समय में ये कटोरावादी‘ पीढ़ी,मौजूदा प्रतिस्पर्धा से कैसे मुठभेड़ करेगी.
हम 15 अगस्त 1947 को आजाद हुए और 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र बन गए.
इतने दशक बाद भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक समानता का संकल्प पूरा नहीं हो सका है.
यह दुर्दशा केवल प्राथमिक शिक्षा में नहीं है,उच्च शिक्षा में भी व्यापक स्तर पर देखा जा सकते हैं.
कमोबेश हर सरकार,शिक्षा में परिवर्तन के नाम पर अपना रंग चढ़ाने की कोशिश करती रही है.लेकिन कोई भी रंग सम्पूर्ण समाज का नहीं हो सका.   
भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में समाजवाद या साम्यवाद भले न आया हो,लेकिन स्कूली शिक्षा में ‘कटोरावादी समाजवाद’ जरुर दिखने लगा.  

इसके पीछे सरकार का मकसद सबको सामान शिक्षा और अवसर देना नहीं,बल्कि खानापूर्ति करना रहा है.
‘सर्व शिक्षा अभियान’ के बावजूद करीब ८१ लाख बच्चे स्कूल से दूर हैं और ५ लाख शिक्षकों कि जरुरत है.
इसपर सरकार गंभीर नहीं है.लेकिन ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के प्रचार के लिए ‘स्कूल चलें हम’ विज्ञापन पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है.   

सरकारी नीतियां बराबरी का समाज बनाने में नाकाम साबित हो रही हैं.


सुप्रीम कोर्ट का फैसला  
१२ अप्रैल,२०१२. सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’ की संवैधानिक वैधता को बरकार रखा है और फैसला दिया है कि सरकारी और निजी स्कूलों में गरीब छात्रों के लिए 25 फीसदी सीटें बिना फीस के आरक्षित करनी होगी.
यह कानून पूरे देश सभी सरकारी और गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में सामान रूप से लागू होगा.
सरकारी सहायता प्राप्त न करने वाले अल्संख्यक संस्थानों पर यह आरक्षण लागू नहीं होगा.
  
शिक्षा का अधिकार
वर्ष 2010 में देश ने एक ऐतिहासिक उपलब्‍धि प्राप्‍त की जब 1 अप्रैल, 2010 को अनुच्‍छेद 21क और नि:शुल्‍क बाल शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम, 2009 लागू किए गए। अनुच्‍छेद 21क और आरटीई अधिनियम के लागू होने से प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के संघर्ष में हमारे देश ने एक महत्‍वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया। आरटीई अधिनियम ने इस विश्‍वास को मजबूत किया है कि समानता, सामाजिक न्‍याय और प्रजांतत्र के मूल्‍यों और न्‍यायपूर्ण एवं मानवोचित समाज का सृजन केवल सभी के लिए समावेशी प्रारंभिक शिक्षा का प्रावधान करके ही किया जा सकता है।